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(ल० - अक्षय-अनन्त-अव्यावाध-अनुपरावृत्ति' पदार्थः) तथा नास्यान्तो विद्यत इत्यनन्तं, केवलात्मनोऽनन्तत्वात् । तथा नास्य क्षयो विद्यत इत्यक्षयं, विनाशकारणाभावात्, सततमनश्वरमित्यर्थः । तथा अविद्यमानव्याबाधमव्याबाधम्, अमूर्त्तत्वात्, तत्स्वभावत्वादितिभावना। तथा न पुनरावृत्तिर्यस्मात्, तद् अनुपरावृत्ति । आवर्तनमावृत्तिः, भवार्णवे तथा तथाऽऽवर्त्तनमित्यर्थः। क्रिया उसमें होती नहीं है। अग्निज्वाला और वायु में स्वाभाविक ऊर्ध्व-तिरछी चलन क्रिया होती है और वायु के प्रयोग से पेड़ के पत्ते में प्रायोगिक हलनचलन क्रिया होती है। मुक्तात्मा में एसी कोई क्रिया नहीं है। सर्वकर्मक्षय होने पर पूर्व प्रयोग से वे यद्यपि ऊपर जाते हैं, लेकिन सिद्धिक्षेत्र से आगे चलने में धर्मास्तिकाय-द्रव्य का सहारा नहीं है, और वापस लोटने का न तो अपना कोई स्वभाव है, न किसी का प्रयोग है।
अरोग :- संस्कृत भाषा का 'रुज्' शब्द व्याधि-वेदना का प्रतिपादक है। सिद्धिक्षेत्र अरुज है अर्थात् जिसमें कोई भी रोग यानी व्याधिवेदना नहीं है, कारण वहां मुक्तात्मा को शरीर और मन नहीं है। देखते हैं किसी - न-किसी रोग शारीरिक या मानसिक होता है। अर्हत् परमात्मा मुक्त होने पर शरीर और मन के बन्धन से सदा के लिए पर हो जाते हैं। तब फिर किसी प्रकार के रोग यानी व्याधिवेदना से आक्रान्त कैसे हो सकते हैं ?
अनन्त :- सिद्धिस्थान अनन्त है, अर्थात् इसका कभी अन्त नहीं होता। क्यों कि (१) शुद्ध आत्मा का अन्त (मरण) होने वाला है नहीं; (२) मुक्त आत्माएँ अनन्त हैं; (३) मुक्तात्मा का केवलज्ञान अनन्त विषय वाला होने से अनन्त है। इससे ज्ञात होता है कि मुक्तात्मा ज्ञानशून्य यानी अज्ञान नहीं होते हैं।
अक्षय :- सिद्धिक्षेत्र का एवं सिद्ध आत्मा का कभी क्षय न होने से वह अक्षय है। क्षय यानी विनाश न होने का कारण यह, कि कभी इसका विनाशक साधन नहीं मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि निर्वाण यह आत्मनाश, चित्संतति (विज्ञानधारा) के नाश स्वरूप नहीं है, किन्तु अविनाशी शुद्ध आत्मस्वरूप के सतत अवस्थान रूप है। मुक्ति होने पर आत्मा सतत, अविनाशी रूप में रहती है, शुद्ध शाश्वतिक अस्तित्व वाली होती है।
__ अव्याबाध :- सिद्धिस्थान निराबाध होता है, किसी प्रकार की बाधा, पीड़ा, संघर्ष कुछ भी वहां होता नहीं है; क्यों कि आत्मा की सिद्धि अवस्था में अब शरीरादि किसी मूर्त (रूपी) पदार्थ का संबन्ध न रहने से अपना केवल अमूर्त स्वरूप प्रगट है; और केवल अमूर्त का ऐसा स्वभाव है कि किसी की भी अपने पर बाधा न पहुंच सके, जैसे कि आकाश पर । संसारी अवस्था में तो आत्मा सदेह होने के कारण अपेक्षा से मूर्तार्मूत होता है, इसलिए बाधा विषय हो सकता है।
अनुपरावृत्ति :- सिद्धि-अवस्था में से कभी संसार-सागर में पुनः वापस लोटना नहीं होता है इसलिए वह अपुनरावृत्तिक है। आवृत्ति आवर्तन को कहते हैं; भवचक्र में देव-मनुष्यादि भिन्न भिन्न प्रकार की अवस्थाओं में जीव का परावर्तन होता रहता है; लेकिन मुक्त हो जाने पर अब इस आवर्तन का अन्त हो जाता है; क्यों कि न तो अब कोई मनुष्यादि भाव के अनुकूल गतिआयुष्यादि कर्म अवशिष्ट हैं, न कोई ऐसे कर्म के उत्पादक कारण रहा है।
सिद्धिगति :- सिद्धिक्षेत्र का नाम सिद्धिगति है; इसमें 'सिद्धि' लोकाकाश के सर्वोपरी अन्तिम भाग स्वरूप है । वही गति है, क्यों कि वह मुक्त परमात्मा से गम्यमान है, प्राप्यमान है; उन्हें अन्त में वहां जाने का है। सिद्धिगति यही 'नामधेय' यानी नाम है जिसका ऐसा स्थान हुआ 'सिद्धिगतिनामधेयस्थान' । स्थानशब्द का
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