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________________ नमो जिणाणं जियभयाणं (नमो जिनेभ्यः जितभयेभ्यः) (ल० - प्रत्येक पदे कथं नमस्कारः ? ) एवंभूता एव प्रेक्षावतां नमस्कारार्हाः आद्यन्त - सङ्गतश्च नमस्कारो मध्यव्यापीति भावना । जितभया अप्येते एव, नान्ये, इति प्रतिपादयन्नाह 'नमो जिनेभ्यः जितभयेभ्यः' । नम इति पूर्ववत्, जिना इति च । जितभयाः भवप्रपञ्चनिवृत्तेः क्षपितभया इत्युक्तं भवति । (मुक्तौ अद्वैतं मन्यमानस्य निरास :-) अनेनाद्वैतमुक्तव्यवच्छेदः । तत्र हि क्षेत्रज्ञाः परम - ब्रह्मविस्फुलिङ्गकल्पाः, तेषां च ततः पृथग्भावे न ब्रह्मसत्तात एव कश्चिदपरो हेतुरिति सा तल्लयेऽपि तथाविधैव तद्वदेव भूयः पृथक्त्वापत्तिः । ___(पं० -) अनेने 'त्यादे, अनेन = भावतो जितभयत्वनिर्देशेन अद्वैते परमब्रह्मलक्षणे सति, मुक्ता: = क्षीणभवाः, तेषां व्यवच्छेदो = निरासः कृत इति गम्यम् । कुत इत्याह 'तत्र' = अद्वेते, 'हि' = यस्मात् 'क्षेत्रज्ञाः' = संसारिणः, 'परमब्रह्मविस्फुलिङ्गकल्पाः ' परमब्रह्मणः = परमपुरुषस्य, (स्फुलिङ्गकल्पाः =) अवयवा एवेति भावः । यदि नामैवं ततः किम् ? इत्याह 'तेषां च' = क्षेत्रज्ञानां, 'ततः' = परमब्रह्मणः, 'पृथग्मावे' = विचटने (प्र० .... विघटने) 'न' = नैव, 'ब्रह्मसत्तात एव' = ब्रह्मसत्ताया एव सकाशात्, 'कश्चित्' कालादिः, 'अपर' = अन्यो, 'हेतुः' = निमित्तम्; 'इति' = एवं, 'सा' = ब्रह्मसत्ता, 'तल्लयेऽपि' तस्मिन् = ब्रह्मणि, मुक्तात्मनो लयेऽपि, 'तथाविधैव' = विचटनहेतुरेव, तद्वदेव' = एकवारमिव, भूयः' = पुनः, 'पृथक्त्वापत्तिः' = विचटनप्रसङ्ग इति। नमो जिणाणं जियभयाणं (भयोंके विजेता जिननाथ के प्रति मैं नमस्कार करता हं) आदि-अन्त-संबद्ध 'नमो' पद मध्यव्यापी : अब, अन्तिम सूत्र की व्याख्या करने के लिए कहते हैं, - पहले सूत्र में अरहंतपन से लेकर बत्तीसवें सूत्र में सिद्धिगतिस्थानप्राप्ति पर्यन्त जिन जिन विशिष्ट स्वरूपों का निर्देश किया ऐसे समस्त स्वरूप वाले ही भगवान प्रेक्षावान (विचारक) लोगों के लिए नमस्कार-योग्य हैं यह सूचित करने के लिए कहते हैं 'नमो जिणाणं जियभयाणं'। प्र० - यहां अन्त में फिरसे 'नमो' पद कहने में क्या पुनरुक्ति दोष नहीं है ? उ० - नहीं, आदि और अन्त (नमोत्थुणं अरहंताणं, नमो जिणाणं) इन दोनों स्थानों में योजित किया गया 'नमो' पद मध्यव्यापी है अर्थात् मध्य के प्रत्येक पद के साथ योजित होता है, यह सूचित करने के लिए पुनः 'नमो' पद दिया गया है; अत: कोई दोष नहीं है। इसी लिए पहले ही कहा गया है कि प्रत्येक पद के अर्थके साथ 'नमस्कार' क्रिया का योग करना; जैसे कि नमो भगवंताणं, नमो आइगराणं.... इत्यादि। प्र० - ठीक है, तो 'नमो जिणाणं' कहिए, 'जियभयाणं' क्यों कहते हैं ? उ० - संसारसंबन्ध से ही भयोत्थान :- जिन्होंने भय को जीत लिया है वैसे भी ये 'जिन' ही होते हैं, अन्य कोई नहीं, यह दिखलाने के लिए 'जियभयाणं' कहा गया है। 'नमो' पद की व्याख्या पूर्व के अनुसार, एवं 'जिन' पद की व्याख्या भी पूर्वोक्त 'जिणाणं जावयाणं' पद की व्याख्या के मुताबिक समझना। 'जितभय' E २२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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