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__ (ल० - ज्ञानदर्शनप्रत्येकस्य कथं सर्वार्थविषयत्वम् ?-) अन्यस्त्वाह, ज्ञानस्य विशेषविषयत्वाद् दर्शनस्य च सामान्यविषयत्वात् तयोः सर्वार्थविषयत्वमयुक्तं, तदुभयस्य सर्वार्थविषयत्वादिति । उच्यते, न हि सामान्यविशेषयो: द एव, किन्तु त एव पदार्थाः समविषमतया संप्रज्ञायमानाः सामान्यविशेषशब्दाभिधेयतां प्रतिपद्यन्ते; ततश्च त एव ज्ञायन्ते त एव दृश्यन्ते इति युक्तं ज्ञानदर्शनयोः सर्वार्थविषयत्वमिति ।
(ल० - समताधर्मविषमताधर्मयोरपि नैकान्तभेदः-) आह, एवमपि ज्ञानेन विषमताधर्म - विशिष्टा एव गम्यन्ते, न समता (प्र० .... सामान्यता) धर्मविशिष्टा अपि, तथा दर्शनेन च समता - धर्मविशिष्टा एव गम्यन्ते, न विषमताधर्मविशिष्टा अपि । ततश्चज्ञानेन समताख्यधांग्रहणाद् दर्शनेनच विषमताख्यधांग्रहणाद्, दर्शनेन च समताख्यधांग्रहणाद्, धर्माणामपि चार्थत्वाद्, अयुक्तमेव तयोः सर्वार्थविषयत्वमिति । न, धर्मम्मिणोः सर्वथा भेदानभ्युपगमात् । तत - श्चाभ्यन्तरीकृतसमताख्यधर्माण एव विषमताधर्मविशिष्टा ज्ञानेन गम्यन्ते, तथा, अभ्यन्तरी - कृतविषमताख्यधर्माण एव च समताधर्मविशिष्टा दर्शनेन गम्यन्ते इत्यतो न दोषः । एतदुक्तं भवति, - जीवस्याभाव्यात् सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते, तथा विशेषप्रधानमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति कृतं विस्तरेण ।। समानता की दृष्टि से ज्ञात किये जाएँ तब वे सामान्य, और विषमता यानी वैयक्तिकरूपता की दृष्टि से देखे जाएँ तब वे विशेष, ऐसे 'सामान्य' एवं 'विशेष' शब्द से अभिधेय होते हैं। उदाहरणार्थ मनुष्य को अन्य जीवों के साथ समान रूप से देखेंगे तो उसको जीव कहेंगे, और असमान रूप से देखेंगे तो उसको मनुष्य कहेंगे, इसी प्रकार उसको यदि अन्य मनुष्यों के साथ समानता की दृष्टि से देखेंगे तो उसको मनुष्य कहेंगे, और अलग रूप से ज्ञात करेंगे तो उसको भारतीय या आङ्ग्ल ऐसा कुछ कहेंगे। यहां पहले में 'जीव' शब्द सामान्यवाची हुआ, 'मनुष्य' शब्द विशेषवाची; दूसरे में 'मनुष्य' शब्द सामान्यवाची हुआ, 'भारतीय' आदि शब्द विशेषवाची हुआ। सामान्य रूप से जानना इसे दर्शन कहा जाता है, और विशेष रूप से जानना यह ज्ञान कहलाता है। अन्ततः दर्शन या ज्ञान उसी पदार्थ का हुआ, लेकिन एक समानता की दृष्टि से, दूसरा असमानता (विषमता) की दृष्टि से । इसलिए हम कहते हैं कि केवलज्ञान में वे समस्त पदार्थ ज्ञात होते हैं, और केवलदर्शन में भी समस्त पदार्थ दृष्ट होते हैं। इन ज्ञान में या दर्शन में कोई भी पदार्थ अज्ञात-अदृष्ट नहीं रहता । वह प्रत्येक सर्व पदार्थों को विषय करता है।
प्र० - तब भी ज्ञान से विषमताधर्मयुक्त पदार्थ ज्ञात होंगे, समताधर्मयुक्त तो नहीं न ? एवं दर्शन से मात्र समताधर्मयुक्त; किन्तु विषमता-धर्मयुक्त तो नहीं न? और देखिए ये सम विषम धर्म भी एक तरह से पदार्थ ही हैं, ज्ञेय ही हैं, तो ज्ञान से समता नामक धर्म और दर्शन से विषमता नामक धर्म अज्ञात रहने पर उन प्रत्येक के विषय सर्व पदार्थ कहां हए? तात्पर्य अकेले ज्ञान किंवा दर्शन को सर्वबोधात्मक कहना अयक्त है।
उ० - अयुक्त नहीं है, चूंकि हम धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद नहीं मानते हैं कि जिससे आप धर्मी ज्ञात होने पर धर्म को बिलकुल अलग मान कर अज्ञात रह जाने का प्रतिपादन कर सके। धर्म धर्मी से कथंचिद् भिन्न है, अर्थात् भिन्न भी है, अभिन्न भी है। इसलिए ज्ञान विषमताधर्म यानी विशेष धर्म से विशिष्ट जिन पदार्थों को ग्रहण करता है, उनमें समताधर्म अभेदरूपसे अन्तर्भावित हो कर ही वे गृहीत होते हैं । इसी प्रकार दर्शन भी समताधर्म से विशिष्ट पदार्थों को उनमें विषमता धर्म (विशेषधर्म) को अभेदरूपसे अन्तर्भूत करते हुए ही ज्ञात
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