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(पं० -) अर्थचेतने पुरुषस्य किल बुद्धिः करणं, प्रकृतिवियोगे च मुक्तावस्थायां करणाभावान्न सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं वा संभवतीतिपराकूत (प्र० .... परोक्तं तन्) निराकरणायोवाच 'नच करणे'त्यादि। सुगमं चैतत् । ननु नीलपीतादय इव बहिरर्थधर्मा दुःखद्वेषशोकवैषयिकसुखादयः; ततो मुक्तावस्थायां सर्वज्ञत्वसर्व्वदर्शित्वाभ्युपगमे बहिरर्थवेदनवेलायां सर्व्वदुःखाद्यनुभवस्तस्य प्राप्नोतीत्याशङ्कापरिहारायाह 'न चौदयिके' त्यादि, न च = नैव,
औदयिकक्रियाभावरहितस्य = असद्वेद्यादिकर्मपाकप्रभवस्वपरिणामरहितस्य, 'ज्ञानमात्रात्' परिज्ञानादेव, 'दुःखादयो' = दुःखद्वेषादयः (प्र० .... दुःखोदयो' = दुःखद्वेषोदयो), हेतुमाह तथानुभवतः' = ज्ञानमात्रादेव दुःखाद्यनुभवने भवत: (प्र० .... दुःखाद्यनुभवतः) तत्स्वभावत्त्वोपपत्तेः' = दुःखादीनामौदयिकक्रियाऽभावत्वो (प्र....भावो) पपत्तेरिति।
प्र० - जिस प्रकार नील, पीत आदि धर्म बाह्य पदार्थ के हैं तो बाह्य पदार्थका ज्ञान होने समय उन नीलादि धर्मों का संवेदन होता है, इस प्रकार, दुःख-द्वेष-शोक-वैषयिकसुख वगैरह भी बाह्य पदार्थ के धर्म हैं, तो मोक्ष में सर्वज्ञत्व अलग मानेंगे तो सर्व पदार्थों का ज्ञान होने समय दुःखादि का भी संवेदन होने की आपत्ति क्यों नहीं लगेगी?
उ० - यह गलत समझ है कि आप नीलादि धर्मो और दुःखादि धर्मों को समान मान रहे हैं। नीलादि धर्म तो बाह्य पदार्थों में अपनी सामग्रीवश उत्पन्न हो नाश पर्यन्त यों ही ठहरते हैं; जब कि दुःख-द्वेष-शोकादि धर्म तो बाह्य पदार्थ के निमित्तवश उत्पन्न होते हुए भी यदि आत्मा के कर्मों की औदयिक अवस्था हुई हो तभी उत्पन्न होते हैं; कहिए वे कर्मों के औदयिकभाव स्वरूप होते हैं। तो फलित यह हुआ कि पदार्थ वैसा न वैसा रहा हो, किन्तु कर्मों के औदयिकभाव की क्रिया का भाव न रहने पर, - अर्थात् अशातावेदनीयादि कर्मों के विपाक से जन्य स्वपरिणाम के शून्य काल में, - पदार्थज्ञान होने पर भी दुःखादि का संवेदन नहीं होता है। तात्पर्य, ज्ञानमात्र से दुःखद्वेषशोकादि का अनुभव नहीं होता है। देखते भी हैं कि योगी, संतपुरुष एवं विवेकी जन पदार्थज्ञान करने पर भी प्राकृत जन की तरह मनोदुःख , द्वेष, शोक इत्यादि में निमग्न नहीं रहते। ऐसा क्यों? इसीलिए कि वे अपने दुर्बल कर्मों को सफल नहीं होने देते हैं। बस, तो जहां मोक्षमें समस्त कर्मों का अभाव ही है, यानी किसी कर्म का उदयभाव नहीं, वहां सर्वपदार्थज्ञान होने पर भी दुःखादि का लेशमात्र स्पर्श न करे यह सहज है। दुःखादि का उदय ज्ञानस्वभाव नहीं किन्तु कर्मों की औदयिक क्रियास्वभाव ही होना युक्ति-युक्त है- क्यों कि यदि आपके मत से दुःखादि का अनुभव ज्ञानमात्र से होता हो, और कर्मों की औदयिक क्रिया से नहीं, तभी वह दुःखानुभव कर्मों की
औदयिक क्रिया के अभाव में भी संगत हो सकता है। जब ऐसा नहीं है, किन्तु दुःखादि कर्मों के औदयिक भाव स्वरूप है और मुक्तात्मा में कोई कर्म है ही नहीं, तब दुःखादि का अंश भी वहाँ आ सकता नहीं, तो दुःखादि के डर से मुक्तात्मा को ज्ञानरहित मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। सर्वज्ञानदर्शन से वे संपन्न होते हैं।
प्र० - ज्ञान और दर्शन प्रत्येक के विषय सर्वपदार्थ कैसे ? क्यों कि ज्ञान तो मात्र विशेष पदार्थों को विषय करता है, सामान्य को नहीं, और दर्शन तो सिर्फ सामान्य पदार्थों को देखता है, विशेषों को नही। हां, दोनों मिलकर समस्त सामान्य विशेषों को ज्ञात करते हैं वैसा कह सकते हैं। लेकिन अकेला केवलज्ञान सर्वज्ञान कैसे?
उ० - केवलज्ञान और केवलदर्शन, प्रत्येक सर्व पदार्थों को विषय करनेवाला इसिलिये है कि ज्ञान दर्शन के अपने अपने विषय, जो विशेष और सामान्य, है, वे परस्पर में एकान्ततः भिन्न नहीं हैं; किन्तु वे ही पदार्थ जब
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