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________________ (ल० - करणाभावे मोक्षे जीवः कथं ज्ञानकर्ता?--) न करणाभावे कर्ता तत्फलसाधकः' इत्यप्यनैकान्तिकम्, परिनिष्ठितप्लवकस्य तरकाण्डाभावे प्लवनसंदर्शनादिति । न चौदयिक - क्रियाभावरहितस्य ज्ञानमात्राद् दुःखादयः, तथानुभवतस्तत्स्वभावत्वोपपत्तेः । सूचित हुआ कि द्रव्य और गुण में भेद है, गुण पृथक् है। यह 'मत्तो अन्ये गुणा :' की व्याख्या हुई । अब 'मदर्थाश्च गुणाः' की व्याख्या। मैं हूं अर्थ यानी साध्य जिनका ऐसे गुण 'मदर्थ' हुए। उदाहरण के लिए यदि धर्मार्थ शरीरादि है, तब धर्म शरीरादि का साध्य हुआ; वहां शरीरादि की प्रवृत्ति धर्म-प्रवृत्ति ही होगी, धर्मप्रवृत्ति शरीरादि-प्रवृत्ति रूप ही होगी, और कुछ नहीं; वाग्-मनकाया का निग्रह भी एक प्रकार की निवृत्त्यात्मक प्रवृत्ति ही है। इस प्रकार आत्मार्थ गुण होने से गुणवर्तना को छोडकर आत्मा में और कोई ऐकान्तिक स्वतन्त्र प्रवृत्ति नहीं है। उसकी जो कोई प्रवृत्ति होती है वह किसी न किसी गुण-पर्याय के वर्तना रूप होती है । गुणों का वर्तन वही आत्मा का वर्तन; चूंकि वैसा दिखाई पडता है कि गुणपर्याय की कुछ भी वृत्ति हम लक्ष में न लें, तो केवल आत्मा की कौनसी प्रवृत्ति हमें ज्ञात होती है? कोई नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि द्रव्य की ऐकान्तिक स्वतन्त्र वृत्ति जब कोई नहीं, किन्तु गुण पर्याय की वृत्ति हो द्रव्यप्रवृत्ति है, तब गुण-पर्याय द्रव्यस्वभाव है; कारण द्रव्य एवं गुणपर्यायों की एक ही वृत्ति यानी वर्तन हुआ। यहां शायद शङ्का हो सकती है कि तब तो द्रव्य गुणपर्याय रूप ही होगा, अतिरिक्त द्रव्य मानने की क्या आवश्यकता? इसका समाधान यह है कि गुणपर्याय आधार के बिना कैसे ठहरेंगे, और किसमें उत्पन्न-विनष्ट होंगे? इसके लिए द्रव्य नामकी अतिरिक्त चीज़ माननी आवश्यक ही है। चन्द्र - चन्द्रिका का द्रष्टान्त : ऐसे आत्मद्रव्य के स्वभावभूत ज्ञानादि गुण, आवरण निर्मूल नष्ट होने पर, पूर्णरूप से अभिव्यक्त हो जाए यह सयुक्तिक है। कहा गया है कि जीव भावशुद्धि यानी मौलिक सहज शुद्धि की प्रकृति से निर्मल चन्द्र की तरह अवस्थित है; और उसका ज्ञानगुण, चन्द्रप्रकाश जिसे चन्द्रिका, ज्योत्सना आदि कहते हैं, उसके समान है; तथा ज्ञान का आवरण कर्मबादल के तुल्य है। बादल कोई न हो तो चन्द्र की ज्योत्सना पूर्ण रूपतया प्रकाशमान होती है। सांख्य प्रश्न के उत्तर :- मोक्ष में बिना साधन ज्ञान कैसे हो सके ? प्र० - जब बुद्धिसंबद्ध पुरुष (आत्मा) में विषयचैतन्य का भास होने के लिए बुद्धितत्त्व करण यानी साधन है, और मुक्तावस्था में बुद्धि का संबन्ध तो छूट जाता है, क्यों कि उसके मूल उपादान प्रकृति का ही वियोग हो जाता है, तब वहां साधनभूत बुद्धि ही न रहने से कोई ज्ञान रूप कार्य नहीं होगा तो सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व तो कैसे ही उत्पन्न हो सके? उ० - सांख्यों का यह कथन, अर्थात् करण (साधन) के अभाव में कर्ता के द्वारा कोई कार्य न हो सकना इस नियम का प्रतिपादन, व्यभिचारी है, वास्तव नियमबद्ध नहीं है। कारण, देखते हैं कि जो बिलकुल निष्णात तैगक हो गया है वह तैरानेवाले किसी साधन की सहायता लिए बिना ही तैर जाता है। तो बिना साधन भी कार्य हुआ न? मोक्ष में भी सर्वज्ञानदर्शन रूप कार्य, आत्मा की निष्णातता यानी प्रगट सहज ज्ञानदर्शनस्वभाव के कारण, हो सकता है। २१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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