________________
लिए भगवान शिष्यों को द्रव्य-पर्यायों की परस्पर में भिन्नता और अभिन्नता (भेद और अभेद) समझाने के लिए दृष्टान्त रूप से अपने आत्मद्रव्य और उसके गुण के सम्बन्ध में यह कथन करते हैं कि 'मेरी आत्मा से मेरे ज्ञानदर्शनोपयोगादि गुण भिन्न हैं, किन्तु खुद आत्मा वही गुण एसा नहीं।
लक्षण-संख्या-प्रयोजन-नाम के भेद से द्रव्य-पर्याय में भेद :
(१. लक्षणभेद) आत्मा से गुण भिन्न होने का कारण यह है कि किसी भी द्रव्य और पर्याय के लक्षण, संख्या, प्रयोजन एवं अभिधान भिन्न भिन्न होते हैं। यह इस प्रकार, - श्री तत्त्वार्थमहाशास्त्र में द्रव्य का लक्षण और गुण का लक्षण, ये अलग अलग दिखलाये गये हैं; वहां कहा है, 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' (अ० ५. सू० ३७.) जो गुण-पर्याय वाला है वह द्रव्य है। 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' (अ० ५. सू० ४०) जो गुण हैं वे द्रव्य में रहते हैं, और स्वयं निर्गुण यानी गुणशून्य होते हैं; गुण में गुण नहीं रहता है। तो यहां द्रव्य और गुण में लक्षणभेद आया।
द्रव्य परिणामी आधार क्यों :
यहां प्रसङ्गवश यह लक्ष में लेने योग्य है कि न्यायादि दर्शन भी द्रव्य को गुणवाले तो मानते हैं लेकिन वे गुणको सर्वथा पृथक् मानते हुए अतिरिक्त समवायसंबन्ध से द्रव्य में उनका संबन्ध मानते हैं; वहां, - 'इसमें समवाय का कौनसा संबन्ध ? समवाय आश्रयभेद एवं गुणभेद से भिन्न भिन्न या एक ही? गुण सर्वथा पृथक् होने पर द्रव्य का निजी स्वरूप क्या रहा? समान सामग्री रहने पर भी गुण अमुक ही द्रव्य में उत्पन्न हो सके अमुक में नहीं, इसका क्या कारण? जैसे विषय-इन्द्रिय-संयोग,इन्द्रिय-मन-संयोग के बाद मन - आत्मा के संयोग से प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है तो यह ज्ञान आत्मा में ही उत्पन्न हो मन में नहीं ऐसा क्यों?.... इत्यादि कई आपत्तियां खड़ी होती हैं; जब कि जैन दर्शन द्रव्य को, गुण-पर्याय वाला जो मानता है यह गु.. - पर्याय का परिणामी आधार मानता है। परिणामी आधार का मतलब यह है कि खुद द्रव्य का उस उस गुण में परिणमन होता है उस उस गुण से तद्रूप होता है। देखते भी हैं कि गुड़ में माधुर्य है तो खुद गुड़ द्रव्य माधुर्य गुण में परिणत हुआ है, माधुर्य के साथ तन्मय हुआ है। किसी अग्निताप आदि के संयोग से गुण पलट जाए तो वहां खुद वही द्रव्य पूर्व परिणमन को छोड कर नये गुण में परिणत हुआ देखते हैं । यह तभी सङ्गत हो सकता है कि जब द्रव्य के साथ गुण भेदाभेद संबन्ध से संबद्ध हो, द्रव्य गुण का परिणामी आधार हो, अर्थात् द्रव्य अपने मूल वैयक्तिक स्वरूप में अचल रह कर गुण-पर्याय रूप में परिणमनशील हो । यही अनेकान्तवाद की वास्तविकता है, यथार्थदर्शिता है, प्रमाणाबाध्यता है।
तो द्रव्य तो गुण-पर्याय का परिणामी आधार हुआ, आश्रय हुआ, और गुण - पर्याय आश्रित हुए । गुण अपना किसी मूल वैयक्तिक स्वरूप कायम रख कर अन्य गुण में परिणत होता हो ऐसा नहीं बनता है, अतः निर्गुण हैं। द्रव्य और गुणपर्याय में लक्षणभेद की तरह (२) संख्याभेद भी है। द्रव्य एक है और इसमें स्थित गुण अनेक होते हैं; जैसे कि गुड़ में वर्ण, रस, गंध, स्पर्श.... इत्यादि कई गुण हैं; आत्मा में ज्ञान - दर्शन आदि अनेक गुणपर्याय रहते हैं। (३.) फलभेद भी हैं; द्रव्य का कार्य अलग, गुणों का अलग । उदाहरणार्थ आत्मद्रव्य बन्धक्रिया, मोक्षक्रिया, वगैरह कार्य करता है, और उसके ज्ञानादि गुण विषयप्रकाशादि का कार्य करते हैं। (४) संज्ञाभेद यानी नामभेद भी है; एक 'द्रव्य' कहा जाता है दूसरा 'गुण' । भगवान कहते हैं कि मेरे नाम अर्हत्, तीर्थंकर, पारगत, जिनेन्द्र इत्यादि हैं, जब कि मेरे ज्ञानादि के नाम हैं गुण, धर्म, पर्याय इत्यादि । इन चार भेदों से
२१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org