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________________ ३१. सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं ( सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः) (ल० - बुद्धिधर्मभूतज्ञानवादि-सांख्यमतम्:-) एतेऽपि बुद्धियोगज्ञानवादिभिः कापिलैरसर्वज्ञा असर्वदर्शिनश्चेष्यन्ते, 'बुद्ध्यध्यवसितमर्थपुरुषश्चेतयते' इति वचनात् । (पं० -) 'बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते' इति । अत्र हि सांख्यप्रक्रिया :- सत्त्वरजस्तमोलक्षणा - स्त्रयो गुणाः, तत्साम्यावस्था प्रकृतिः, सैव च प्रधानमित्युच्यते । प्रकृतेर्महान्, महदिति (प्र० .... महानिति) बुद्धेराख्या । महतोऽहङ्कारः आत्माभिमानः । ततः पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि, वाक्पाणिपादपायूपस्थलक्षणानि पञ्चैव कर्मेन्द्रियाणि, एकादशरूपं (प्र० .... दशमिच्छारूपं) मनः, तथा पञ्च तन्मात्राणि गन्धरस - रूपस्पर्शशब्दस्वभावानि । तन्मात्रेभ्यश्च यथाक्रमं भूप्रभृतीनि पञ्च महाभूतानि प्रवर्तन्ते इति । अत्र च प्रकृति - विकारत्वेनाचेतनापि बुद्धिश्चैतन्यस्वतत्त्वपुरुषोपरागात् (प्र० .... षोपगमात्) सचेतनेवावभासते । तदुक्तं, "पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा' अस्य व्याख्या, - 'पुरुषः' = आत्मा, 'अविकृतात्मैव' = नित्य एव, 'स्वनिर्भासं' = स्वाकारम्, 'अचेतनं' = चैतन्यशून्यं सत् 'मन': = अन्तःकरणं, 'करोति' = विदधाति, 'सान्निध्यात्' = सांनिध्यमात्रेण, निदर्शनमाह 'उपाधिः' = पद्म - रागादिः, 'स्फटिकं' उपलविशेषं, यथा स्वनिर्भासं करोति तत्परिणामान्तरापत्तेः, भोगोप्यस्य मनोद्वारक एव। ३९. सव्वन्नणं सव्वदरिसीणं (सर्वज्ञ-सर्वदर्शी के प्रति) बुद्धिनिष्ठज्ञानवादी कापिलो (सांख्यों) की प्रक्रिया : अब 'सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं' पद की व्याख्या । ऐसे भी परमात्मा कपिलमतानुयायी सांख्यों को असर्वज्ञ-असर्वदर्शी रूप से स्वीकृत है; क्योंकि वे बुद्धियोगज्ञान-वादी हैं, अर्थात् जड़ प्रकृति से उत्पन्न बुद्धितत्त्व में ज्ञानगुण का योग होता है ऐसा मानने वाले हैं। उनका शास्त्र कहता है 'बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते' पदार्थ तो बुद्धितत्त्व से गृहीत होता है किन्तु उसका, आत्मा में भास होता है। यह कैसे होता है इस बारे में सांख्यों की प्रक्रिया ज्ञातव्य है । वह इस प्रकार है, - ___ समस्त जड़ सृष्टि का मूल 'प्रकृति' है, और वह त्रिगुणात्मक यानी सत्त्व, रजस्, तमस्, - इन तीन गुणों की साम्यावस्था स्वरूप है, समान अंश वाले तीनों के एकरस समूहरूप है। उसी को 'प्रधान' तत्त्व भी कहते हैं। प्रकृति जब विषमावस्थापन्न गुणों वाली होती है तब वह महत् तत्त्व कहलाती है तो प्रकृति से महान उत्पन्न हुआ, यहि 'बुद्धि' का दूसरा नाम है। महत्तत्त्व कहो, बुद्धि कहो एक ही चीज है। बुद्धि से अहङ्कार उत्पन्न होता है। वह स्वयं आत्मा न होते हुए भी आत्माभिमान रूप है। इससे ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय और १. मन (अन्त: करण) उत्पन्न होते हैं। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन, - ये पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । जिह्वा, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ (स्त्री - पुरुष का लिङ्ग), वे पांचों कर्मेन्द्रियाँ हैं, बोलने आदि क्रिया में उपयुक्त इन्द्रिय हैं । ग्यारहवां मन सोचने आदि में उपयुक्त होता है। ये सब अहङ्कार तत्त्व से उत्पन्न हुए हैं। इसी अहंकार से पांच तन्मात्राएँ भी उत्पन्न होती हैं। वे गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द के सूक्ष्म स्वरूप हैं। इस प्रकार अहंकार से सोलह तत्त्व उत्पन्न होते हैं। पंच तन्मात्राओं से क्रमशः पृथ्वी - जल - तेज - वायु - आकाश, इन पांच भूतों की उत्पत्ति होती हैं। प्रकृति से ले कर पंचभूतों तक १+१+१+१६+५ सब मिलाकर २४ तत्त्व और २५ वां पुरुष (चेतन) तत्त्व सांख्य दर्शन को मान्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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