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________________ (२) उपचय नहीं इससे भी लय नहीं :- यदि आप को यह सिद्धान्त स्वीकार्य न हो तो लय मानने में और दूषण यह उपस्थित होता है कि एक सत्ता में दूसरी सत्ता का प्रवेश होने पर उपचय यानी वृद्धि नहीं होती है ऐसा नहीं । तो परमपुरुष स्वरूप सत्ता में मुक्तात्मा रूप सत्ता का प्रवेश होने पर परमपुरुष में कुछ भी वृद्धि न हो ऐसा नहीं, वृद्धि होनी ही चाहिए । एक पल प्रमाण घी में और पलमान घी का प्रवेश होता है तो अलबत्त दो अलग घी दिखाई नहीं पड़ते, फिर भी पूर्व घी में वृद्धि अवश्य होती है, एक का दो पल प्रमाण हो जाता है। अगर ऐसी परमपुरुष की सत्ता में वृद्धि होती है, फिर तो यही हुआ कि प्रवेश करने वाली मुक्तात्मा की सत्ता प्रवेश के बाद भी वैसी न वैसी कायम रही ! किन्तु इसमें तो आप को असङ्गतता दिखाई देगी क्यों कि यह वृद्धि यानी उपचय तो परमपुरुष की मूल सत्ता की अपेक्षा अन्य सत्ता स्वरूप हुआ। दूसरी सत्ता ही उपचयरूप में प्राप्त हुई ! असल में यही न्यायप्राप्त है क्यों कि कई मुक्तात्मा एक आकाशावगाहना में रहते हुए भी प्रत्येक की सत्ता अलग अलग है। मोह विष प्रसर कटकबन्ध :- ईस लिए जब लय में तो एकीभाव (अभेद) होने पर दोनों में से एक की सत्ता नष्ट ही हो जाती है, ओर (वृद्धि) होने पर मूल की अपेक्षा दूसरी सत्ता तदवस्थ रहने की आपत्ती आती है, तो मुक्त होने वाले आत्मादि का परमपुरुष, आकाश, आदि दूसरे पदार्थ में (दूसरे तत्त्व में) लय नहीं हो सकता है यह सिद्ध हुआ। यह लय का निषेध मोहविषप्रसर-कटकबन्ध रूप हुआ। तात्पर्य, जिस प्रकार सर्प आदि द्वारा दंश लगने पर तुरन्त विषग्रस्त देहभाग को रस्सी आदि से बांध देने से विष का प्रसरण नहीं होता है, इस प्रकार यहां लय का निषेध सिद्ध करने से मोह यानी मिथ्याबुद्धि आदि का प्रसरण नहीं हो सकता है। भगवान में और प्रकार का निमित्तकर्तुत्व : प्र० - परम पुरुष में आप अगर निमित्तकर्तुत्व का निषेध करते हैं तो भगवान मोचक यानी दूसरे को मुक्त करने वाले भी कैसे हो सकेंगे? क्योंकि, यह भी एक प्रकार का निमित्तकर्तृत्व ही है न? उ० - आप जगत्सर्जन के प्रति निमित्तकर्तृत्व का प्रतिपादन करते हैं वैसा तो नहीं किन्तु भव्य जीवों को विशुद्ध प्रणिधान-पूजन-ध्यानादि होने में भगवान आलम्बन रूपसे निमित्तकर्ता इष्ट हैं । मुक्त होने के लिए अति आवश्यक प्रणिधान-ध्यानादि का मुख्य रूप से तो कर्तृत्व यानी प्रयत्न भव्य जीवों का है, भगवान का नहीं; किन्तु वह प्रणिधान-पूजन-ध्यानादि वीतराग सर्वज्ञ श्री अरहंत भगवान का ही किया जाए तब मुक्ति हो सकती है। इस लिए वे भगवान जो असाधारण आलम्बनभूत हुए, इसे निमित्तकर्तृत्व कह सकते हैं। तो इस प्रकारका निमित्तकर्तृत्व और परभावनिवृत्ति, इन दोनों से संपन्न हो भगवान मुक्त और मोचक सिद्ध होते हैं। परभावनिवृत्ति का मतलब यह है कि 'पर' यानी किसी अनादि शुद्ध ब्रह्म रूप से, 'भाव' यानी भवन अर्थात् लय, 'निवृत्त' है, यानी नहीं होता है। तब स्वतन्त्र यत्न से मुक्त होना, और आलम्बन स्वरूप निमित्तकर्तृत्व से औरों को मुक्त कराना, - इन दोनों वस्तुस्थितियों से भगवान मुक्त और मोचक हैं। ३० । स्वात्मतुल्यपरफलकर्तृत्वनाम की ८ वी संपदा का उपसंहार : इस प्रकार अरिहंत परमात्मा स्वयं जिन, तीर्ण, बुद्ध, और मुक्त हुए हैं और अन्य भव्य जीवों को ऐसे बनाते हैं, अर्थात् वे जापक, तारक, बोधक एवं मोचक भी हैं; तो इन जिणाणं-जावयाणं से 'मुत्ताणं मोयगाणं' तक के चार पदों की 'स्वात्मतुल्य-परफलकर्तृत्व' नाम की संपदा हुई; क्यों कि जिन-जापक आदिरूप से वे स्व और पर दोनों का हित करते हैं, स्वात्मा के ठीक समान ही चरम फल मोक्ष दूसरों को भी पैदा करते हैं। ८ । २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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