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________________ (ल० - लयमते एकतरसत्तानाश-उपचयापत्तिः स्वमते निमित्तकर्तुत्वम् -) न च द्वयोरेकीभावः, अन्यतराभावप्रसङ्गात्।न सत्तायाः सत्तान्तरप्रवेशेऽनुपचयः, उपचये च 'सैव सा' इत्ययुक्तं, तदन्तरमापन्न: (प्र०... मासन्नः) स इति नीतिः । नैवमन्यस्य अन्यत्र लय इति मोहविषप्रसरकटकबन्धः । तदेवं निमित्तकर्तृत्वपरभावनिवृत्तिभ्यां तत्त्वतो मुक्तादिसिद्धिः । ३० । (अष्टमसंपदुपसंहार:-) एवं जिनजापक - तीर्णतारक - बुद्धबोधक - मुक्तमोचकभावेन स्वपर-हितसिद्धेः, आत्मतुल्यपरफलकर्तृत्त्वसंपदिति । ८! (पं० -) तथाऽन्यस्यान्यत्र लयोऽप्यनुपपन्न इति दर्शयन्नाह 'न च,' 'द्वयो': = मुक्तपरमपुरुषयोः, 'एकीभावो' लयलक्षणः, कुत इत्याह 'अन्यतराभावप्रसङ्गाद्', अन्यतरस्य = मुक्तस्य परमपुरुषस्य वा, अभावप्रसङ्गात् = असत्त्वप्राप्तेः, अन्यतरस्येतरस्वरूपपरिणतौ तत्र लीनत्वोपपतेः । एतदनभ्युपगमे (प्र० - .... अत्रैव) दूषणान्तरमाह 'न', 'सत्तायाः' परमपुरुषलक्षणायाः, 'सत्तान्तरप्रवेशे', सत्तान्तरे = मुक्तलक्षणे प्रविष्टे सतीत्यर्थः, 'अनुपचयः' किन्तूपचय एव वृद्धिरूपः, घृतादिपलस्य पलान्तरप्रवेश इव । यद्येवं ततः किमित्याह 'उपचये च' सत्तायाः, 'सैव' प्राक्तनी पुरुषस्य मुक्तस्य वा, 'सा' सत्ता, 'इति', 'अयुक्तम्' = असङ्गतं, कुत? यतः 'तदन्तरं' = सत्तान्तरं पृथक् तत्सत्तापेक्षया, 'आपन्नः' पाठान्तरे 'आसन्नः' = प्राप्तः. 'स' इत्युपचयः । क्वचिच्चासन्नमिति पाठस्तत्र तदन्तरमिति योज्यम् । इति नीतिः' = एषा न्यायमुद्रा । अथ प्रकृतसिद्धिमाह 'न' = नैव, ‘एवं' = द्वयोरेकीभावेऽन्यतराभावप्रसङ्गेन, उपचये तदन्तरापत्त्या वा, 'अन्यस्य' = सामान्येन मुक्तादेः, 'अन्यत्र' = पुरुषाकाशादौ, 'लय इति', एष लयनिषेधो 'मोहविषप्रसरकटकबन्धः' एवं निषेधे हि कटकबन्ध एव विषं न मोहः प्रसरतीति । 'तत्' = तस्माद्, 'एवम्' = उक्तनीत्या, 'निमित्तकर्तृत्व - परभावनिवृत्तिभ्यां', निमित्तकर्तृत्वं च मुख्यकर्तृत्वायोगेन भव्यानां परिशुद्धप्रणिधानादिप्रवृत्त्यालम्बनतया, परभावनिवृत्तिश्च लयायोगलक्षणा, ताभ्यां 'तत्त्वतो' = मुख्यवृत्त्या, मुक्तादिसिद्धिः = मुक्तमोचकसिद्धिः । इसलिए सिद्ध होता है कि परमपुरुष में, 'कर्ता स्वतन्त्र है' - इसके लक्षण संगत नहीं हो सकते । तो वे जगत्सर्जन में निमित्तमात्र रूप से भी कर्ता नहीं हो सकते। (१) एक की सत्ता के नाश की आपत्तिवश लय अनुचित है : इच्छादिदूषण की आपत्तिवश तो मुक्त आत्मा का परम पुरुष (ब्रह्म) में लय मानना अनुचित हैं ही, लेकिन एक का दूसरे में लय हो भी नहीं सकता; क्यों कि लय है एकीभाव; अब उदाहरणार्थ प्रस्तुत में देखिए कि मुक्तात्मा और परम पुरुष दोनों का एकीभाव अगर होता हो तो फलतः मुक्तात्मा या परम पुरुष दोनों में से एक का अभाव हो जाएगा अर्थात् एक असत् हो जाएगा । लय यानी लीनता तभी उपपन्न हो सकती है कि जब एक दूसरे के स्वरूप में परिणत हो जाए, याने बिलकुल दूसरे के साथ अभिन्न रूप बन जाए । अर्थात् वहां जिसका मूल स्वरूप यथावत् कायम रहेगा वह लय का आधार होगा, और लय पाने वाले का स्वरूप नष्ट हो जाएगा। लेकिन अपना स्वरूप ही नष्ट हुआ, तो कहां से वह सत् रहेगा ? असत् ही हो जाएगा। किन्तु ऐसा कभी हो नहीं सकता । कारण 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः' - असत् की उत्पत्ति यानी सद्भाव जैसे कि आकाशकुसुम का कभी सद्भाव नहीं होता है, और सत् का सर्वांश नाश कभी नहीं हो सकता। दीपक जल जाने पर भी श्याम तामस अणु वातावरण में फैल जाता है। तो मुक्त आत्मा का सर्वथा अभाव नहीं हो सकता है। A२०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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