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के लिए घर से शाला में हाथों से किताब लेकर जाता है। यहां क्रिया है ले जाने की; इसके बालक आदि छ: कारण है। कौन ले जाता है ? बालक; वह कर्ता कारक
बालक आदि छ: ही ले जाने की क्या ले जाता है? किताब; वह कर्म कारक
क्रिया में कारणभूत होने से किस साधन से ले जाता है ? हाथों से, वे करण कारक
'कारक' कहे जाते हैं ।
क्रियाव्यापार होने में ये कर्ता आदि किस हेतु से ले जाता है ? अध्ययन हेतु, वह संप्रदान कारक
सबों की आवश्यकता है। संप्रदान कहां से ले जाता है ? घर से, वह अपादान कारक
की भी क्रिया के उद्देश रूप से कहां ले जाता है ? शाला में, वह अधिकरण कारक । आवश्यकता है। भगवान की आत्मा में छः कारक :
प्रसंगवश यह देखिए कि अर्हत्प्रभु के आत्मतत्त्व में षट्कारक होते हैं । दृष्टान्तसे यह इस प्रकार, - भगवान की आत्मा आत्मा को, आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में से, आत्मा में जानती है। यहां, (१) आत्मा जानती है, ऊपर ऊपर का मन नहीं, (२) आत्मा को जानती है शुद्ध आत्मा के प्रति दृष्टि रखती है, किसी अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गादि के प्रति नहीं; (३)आत्मा के द्वारा देखती है, किसी गुण आदि के द्वारा नहीं; (४) आत्मा के लिए देखती है, किसी और उद्देश से नहीं; (५) आत्मा से जानती है, नहीं कि पुस्तकादि में से, (६) आत्मा में जानती है, किन्तु किसी स्थल या काल विशेष में नहीं । ऐसे ही, भगवान की आत्मा आत्मा को, आत्मा से, आत्मा के लिए, आत्मा में से, आत्मा में योजित करती है, चलाती है, मुक्त करती है....इत्यादि । यहां आत्मा काया को चलाती तो है, लेकिन भेदज्ञान जाग्रत रहने से लक्ष काया पर नहीं किन्तु आत्मा पर ही है, अतः कहा कि आत्मा को चलाती है। एवं आत्मा में मुक्त करती है, किसी जगत्कर्ता ब्रह्म में लीन नहीं करती है। तात्पर्य भगवानने सभी क्रियाओं में विषय, साधन वगैरह कारक रूप से आत्मा को ही गृहीत किया है।
कर्ता का स्वातन्त्र्य क्या :
अब प्रस्तुत में, छ:ही कारकों में कर्ता रूप कारक स्वतन्त्र है, बाकी पांच परतन्त्र हैं। यह स्वतन्त्र कर्ता कारक के लिए शब्दशास्त्र कहता है कि 'फलार्थी यः स्वतन्त्रः सन् फलायारभते क्रियाम् । नियोक्ता परतन्त्राणां स कर्ता नाम कारकम् !! - जो क्रिया के फल की अपेक्षा रखने में स्वतन्त्र होता हुआ फल के लिए क्रिया का प्रारम्भ करता है और जो अन्य परतन्त्र कारकों का आयोजन करता है, वह कर्ता नाम का कारक है।' कर्मादि कारक तो फलेच्छाशून्य होते हैं, एवं प्रयत्न रहित होते हैं, और स्वयं अन्य कारकों के नियोक्ता नहीं होते हैं, जब कि कर्ता अन्य सभी साधनों का प्रवर्तक होता है, क्यों कि उसकी प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के अधीन वे चलते हैं; कर्ता अगर प्रवत्ति करे तो वे कार्योत्पत्ति के प्रति प्रवर्तमान होते हैं, कर्ता यदि प्रवृत्ति न करके निवृत्तिशील होता है तो वे प्रवर्तमान नहीं होते है। कभी तो 'है', 'वर्तता है' इत्यादि क्रिया में बिना साधन भी कर्ता कारणभूत होता है। जब कि, चाहे कर्ता अविवक्षित रहे, फिर भी ऐसे भी कर्ता के बिना कोई साधन क्रियाजनक नहीं होता है। यहां जब जगत का वैचित्र्य कर्मकृत है, तो कर्मसंचय यह स्वतन्त्र कर्ता हुआ, किन्तु परम पुरुष कर्ता नहीं । जगत का सर्जन-विसर्जन परम पुरुष की प्रवृत्ति-निवृत्ति के अधीन नहीं है, एवं इसके अन्य साधनों का आयोजन उनकी इच्छानुसार नहीं होता है; सर्जन की प्रवृत्ति-निवृत्ति और साधनों का आयोजन तो जीवों के कर्मानुसार होते हैं।
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