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________________ (ल० - निमित्तकर्तुत्वमपि न ) - निमित्तकर्तृत्वाभ्युपगमे तु तत्त्वतोऽकर्त्तृत्वं स्वातन्त्र्यासिद्धेः । (पं० -) अथ कर्म्मादिकृतं जगद्वैचित्र्यं, पुरुषस्तु निमित्तमात्रत्वेन कर्त्तेत्यपि निरस्यन्नाह ‘निमित्तमात्रकर्त्तृत्वाभ्युपगमे तु' = निमित्तं सन्नसौ कर्ता, इच्छादिदोषपरिजिहीर्षयेत्येवमङ्गीकरणे पुनः, 'तत्त्वतो' निरुपचरिततया, ‘अकर्त्तृत्वं' पुरुषस्य । हेतुमाह 'स्वातन्त्र्यासिद्धेः ' = स्वतन्त्रः कर्तेतिकर्तुलक्षणानुपपत्तेः । = प्रेरणा तो मान सकते नहीं, तब प्रवृत्ति के लिए उनकी इच्छा माननी होगी। अब 'अर्हद्भगवान अमुक का कल्याण करते हैं अमुक का नहीं, तो वहां राग द्वेष सिद्ध होगा' - ऐसा भी नहीं है, क्यों कि देखिए अर्हत्प्रभु का अनुग्रह तो बिना पक्षपात सबों के प्रति है, लेकिन जो जीव उस अनुग्रह के सहयोग में अपनी योग्यता पुरुषार्थ इत्यादि जोड़ते हैं उनका कल्याण होता है, जो वैसा नहीं करते हैं उनका कल्याण नहीं हो सकता; तो इसमें भगवान को रागद्वेष की आपत्ति कहां आई ? सूर्य का प्रकाश - अनुग्रह भी बिना पक्षपात सर्वसामान्य है, फिर भी अन्ध पुरुष उसका लाभ न उठाए इसमें सूर्य थोडा ही द्वेष वाला कहा जा सकेगा ? अब आप तो जगत्कर्ता को खुद को केवल अनुग्रहशील नहीं किंतु संसार की विचित्र सर्जन प्रवृत्ति करनेवाले मानते हैं, तो हीनादि सर्जन करने में उन्हें द्वेष, मात्सर्यादि अवश्य मानना होगा । (४) फलतः और भी यह हानि है कि जो मुक्त हुए वे आपके मतानुसार जगत्कर्ता स्वरूप हो जाने से, मनुष्यादि किसी भी संसारी जीव के समान तो क्या किन्तु उसकी अपेक्षा अतिजघन्य सिद्ध होगा ! क्यों कि संसारी जीव तो विराट जगत्सर्जन की प्रवृत्ति में समर्थ नहीं है तो उसको इतनी भारी इच्छा, मात्सर्य आदि नहीं है की जितनी सारे जगत की घटनाओं जैसे कि, नारक जीवों के कुत्सित शरीर और भयङ्कर वेदनासामग्री, कीटादि तिर्यंच योनिवालों को वैसी वैसी दुःख देने वाली शस्त्रादिसामग्री, इत्यादि का निर्माण करने में आवश्यक है । संसारी जीव को तो परिमित इच्छादि है । तो जिस मुक्ति में जगत्कर्ता स्वरूप बन जाना हो और ऐसे अपरिमित इच्छादि दोषों से युक्त होना हो, ऐसी मुक्ति क्यों अतिजघन्य न कही जाए ? | निमित्तकर्तृत्व का निरास : प्र० ठीक है, इच्छादि दोष के निवारणार्थ, जगत्कर्ता पुरुष विचित्र जगत के सर्जन में कोई क्रिया करनेवाले कर्ता नहीं किन्तु निमित्तमात्र कर्ता अर्थात् सिर्फ निमित्त होने वाले के रूप में कर्ता है ऐसा मान ले तो क्या ? जगत का विचित्र सर्जन तो जीवों के कर्म आदि विचित्र कारणवश उपपन्न हो सकता है; ईश्वर को रचयिता मानने की कोई जरूर नहीं । - - उ०- ऐसा अगर मान ले तो जगत्कर्ता तत्त्वरूप से यानी मुख्य वृत्ति से कर्ता नहीं है ऐसा फलित होगा । औपचारिक कर्तृत्व, यानी कर्तृत्व का आरोप मात्र करे यह एक अलग बात है। मुख्य कर्तृत्व न होने का कारण यह है कि कर्ता का तो लक्षण है कि 'स्वतन्त्रः कर्ता' कर्ता स्वतन्त्र होता है ऐसा शब्दशास्त्र में लक्षण है 1 1 षट् कारक :- भाषाशास्त्री की दृष्टि से छः कारक होते हैं; कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण | 'कारक' शब्द का अर्थ है 'करने वाला', अर्थात् क्रिया में कारणभूत । 'कारक' की छ: विभक्तियां इस प्रकार होती हैं, कर्ता से लेकर 'अपादान' तक की पहली पांच कारक विभक्ति, और 'अधिकरण' की सातवी कारक विभक्ति । छट्ठी भक्ति 'सम्बन्ध' में होती है, (जैसे की धर्म की किताब, धर्म संबन्धी किताब ); वह तो किताब आदि नाम के साथ लगी, क्रियापद के साथ नहीं; इसलिए वह 'कारक' विभक्ति नहीं कहलाती ! कर्ता, कर्म, आदि की प्रथमा द्वितीया वगैरह विभक्ति क्रियापद के साथ सम्बन्ध रखती है। उदाहरणार्थ 'बालक अध्ययन Jain Education International २०६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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