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________________ (ल० - इन्द्रियवद् ज्ञानं न स्वरूपसत् प्रकाशकम् ) एवं चेन्द्रियवदज्ञातस्वरूपैवेयं स्वकार्य - कारिणीत्यप्ययुक्तमेव, तत्कार्यप्रत्यक्षत्वेन वैधात् । अतोऽर्थप्रत्यक्षताऽर्थपरिच्छेद एवेति नीत्या बुद्धादिसिद्धिः ॥ २९ ॥ (पं० -) स्याद् वक्तव्यं 'यथेन्द्रियं स्वयमप्रतीतमपि ज्ञानं प्रत्यक्षं जनयति, तथा तद्भवा बुद्धिरपि स्वयमप्रतीताप्यर्थप्रत्ययं करिष्यती'त्याशङ्का । परिहरन्नाह ‘एवं च' = अनेन प्रकारेणानुमानादिविषयताऽघटने (प्र.... घटनेन) प्रत्यक्षबुद्धिः 'इन्द्रियवद्', 'अज्ञातस्वरू पैवेयं' = स्वयमप्रतीतैव प्रत्यक्षबुद्धिः, 'स्वकार्यकारिणी', स्वकार्य विषयस्य परिच्छेद्यत्वं, तत्कारिणी, 'इत्यपि' = एतदपि, न केवलमस्यानुमानादिविषयत्वम्, 'अयुक्तमेव'। आग का अनुमान हो सकता है। क्यों कि धुआँ आग के साथ बिलकुल व्याप्त है, तो बिना आग वह कैसे उठ सकता है ? इसलिए धुंए रूप हेतु से आग स्वरूप साध्य का अनुमान हो सकता है। अब देखिए कि प्रस्तुत में धुंए जैसे कोई हेतु दृष्ट नहीं होता है, तो ज्ञान का अनुमान कैसे हो सकेगा? आप अगर कहें ज्ञान को ज्ञात कराने वाले अनुमान में और कोई हेतु मत हो, किन्तु 'अर्थप्रत्यक्षता' यह साधक हेतु हो सकता है, क्यों कि अर्थप्रत्यक्षता तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है; इससे अनुमान कर लेंगे कि भीतर ज्ञान उत्पन्न हुआ है। अर्थप्रत्यक्षता रूप विशिष्ट का ज्ञान विशेषण ज्ञान के बिना अशक्य :- लेकिन प्रश्न खडा होता है कि यह अर्थप्रत्यक्षता ज्ञात कैसे होगी? क्यों कि यहां तो दो चीजें हैं, एक भीतरी ज्ञान, और दूसरा बाह्य पदार्थः इनमें से अर्थप्रत्यक्षता को ज्ञान स्वरूप तो कह सकते नहीं, क्यों कि वह ज्ञान तो साध्य है। तब अर्थप्रत्यक्षता को यहां प्रत्यक्षज्ञान से ज्ञात हो रहे हुए पदार्थ के स्वरूप ही कहना होगा। दूसरे शब्द में कहें तो भीतर उत्पन्न हुआ जो घड़े आदि विषय का प्रत्यक्षज्ञान, उसकी विषयता को प्राप्त बाह्य घड़े आदि पदार्थ ही तो अर्थप्रत्यक्षता है। अब आप चाह्य प्रत्यक्षविषयतापन्न पदार्थ को अर्थप्रत्यक्षता कहें या मात्र प्रत्यक्षविषयता को अर्थप्रत्यक्षता कहें, एक ही बात है; लेकिन इसको आंतरिक उत्पन्न प्रत्यक्षज्ञान की सिद्धि के लिए साधक हेतु रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकते; कारण, अनुमान करने के लिए तो हेतु की सत्ता मात्र नहीं किन्तु हेतु का निर्णय रहना चाहिए; और यहां 'प्रत्यक्षविषयता' रूप हेतु का निर्णय नहीं कर सकते है क्यों कि यह एक विशिष्ट पदार्थ यानी विशेषणयुक्त विशेष्य रूप है, और इसमें विशेषणभूत 'प्रत्यक्ष' तो आपके मतानुसार ज्ञात नहीं है; जब कि नियम ऐसा है कि विशेषण के अज्ञात रहने पर समूचा विशिष्ट पदार्थ ज्ञात नहीं हो सकता है। पिता अज्ञात है तो 'यह लडका अमुकपितृपुत्र है अर्थात् इसमें अमुक पिता का पुत्रत्व है, - ऐसा नहीं कह सकते हैं। ठीक इसी प्रकार यहां प्रत्यक्षज्ञान जहां तक अज्ञात है वहां तक बाह्य घड़े आदि पदार्थ में उस (प्रत्यक्ष) की विषयता कहां से निर्णीत हो सकती है ? इसलिए हम कहते हैं कि आप अर्थप्रत्यक्षता के द्वारा भीतरी प्रत्यक्षज्ञान का अनुमान नहीं कर सकते हैं। प्रदीपप्रकाश के दृष्टान्त से ज्ञान स्वत: प्रतीत है : अन्वय-व्यतिरेक : तो क्या ज्ञान अज्ञात ही रहता है? नहीं, ज्ञानकी प्रतीति वस्तु की प्रतीति के साथ साथ ही स्वत: हो जाती है। देखते हैं कि प्रदीपादि प्रकाश की प्रतीति न रहने पर इससे प्रकाशित घड़े आदि पदार्थ की प्रतीति नहीं हो सकती। तो ज्ञान अगर अप्रतीत रहे तो ज्ञानविषयता से संपन्न पदार्थ भी कैसे प्रतीत होगा? ज्ञान को स्वत: असंवेद्य मान कर आप किसी हेतु से ज्ञान का अनुमान प्रस्तुत करने को जाएँ तब भी ख्याल रहें कि अन्वय-व्यतिरेक से निश्चित नहीं किये गए हेतु से साध्य का निर्णय नहीं हो सकता। 'जहां जहां यह हेतु है वहां वहां यह साध्य है' - २०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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