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________________ कुत इत्याह 'तत्कार्यप्रत्यक्षत्वेन' तस्य = इन्द्रियस्य, कार्यं विज्ञानं, तस्य प्रत्यक्षत्वं तेन, 'वैधर्म्यात्' वैसदृश्याद् बुद्धिकृतार्थप्रत्यक्षतायाः । अन्यादृशं हीन्द्रियप्रत्यक्षमन्यादृशं बुद्धेः । इदमेवाह 'अतः ' = इन्द्रियाद् 'अर्थप्रत्यक्षता अर्थपरिच्छेद एव' = विषयप्रतीतिरेवोपलब्धव्यापाररूपा, बुद्धेस्तु विषयस्योपलभ्यमानतैवार्थ - प्रत्यक्षता; साधर्म्यसिद्धौ च दृष्टान्तसिद्धिरिति । = यह अन्वय, और 'जहां यह साध्य नहीं हैं वहां यह हेतु भी नहीं ही है' - यह व्यतिरेक कहलाता है। प्रस्तुत में पहले जब हेतु का ही निर्णय नहीं हो सकता तो तत्पश्चाद् अन्वय व्यतिरेक और बाद में साध्य का निश्चय तो कैसे ही हो सके ? = ज्ञान इन्द्रियवत् स्वरू पसत् ज्ञापक नहीं : प्र० - जिस प्रकार चक्षु आदि इन्द्रिय हमें खुद अज्ञात रहती हुई वे अपने विषय का ज्ञान कराती हैं, ठीक इस प्रकार 'ज्ञान भी अज्ञात रहता हुआ ही अपने विषय का प्रकाश करता है', - ऐसा मान लें तो क्या बाधा ? चक्षुइन्द्रिय से वस्तु देखने समय यह नहीं पता चलता कि मुझे चक्षु है, और इस रूप की है; सिर्फ उस इन्द्रिय का अस्तित्व होना चाहिए यानी वह स्वरूपसत् होनी चाहिए; वैसे ही ज्ञान स्वरूपसत् विद्यमान होना चाहिए, और वह स्वयं अज्ञात रहता हुआ वस्तुप्रकाश करे तो क्या हर्ज ? उ० - जिस प्रकार पूर्वोक्त अनुसार ज्ञान का ग्रहण अनुमान से होना अयुक्त है, वैसे यह भी अयुक्त ही है कि ज्ञान इन्द्रियों की तरह अज्ञात रहता हुआ ही वस्तुज्ञापक हो, वस्तु में प्रकाश्यता स्वरूप अपना कार्य करे । पूछिए क्यों अयुक्त ? इसलिए कि इन्द्रिय का दृष्टान्त विषम है। दोनों का कार्य भिन्न भिन्न है। यह इस प्रकार, इन्द्रिय की अर्थप्रत्यक्षता और ज्ञान की अर्थप्रत्यक्षता समान नहीं है : : इन्द्रिय का कार्य अर्थप्रत्यक्ष यानी ऐन्द्रियक विज्ञान है उसकी प्रत्यक्षता ज्ञान की अर्थप्रत्यक्षता के सदृश नहीं है; इन्द्रिय की अर्थप्रत्यक्षता तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष स्वरूप है, और ज्ञानजन्य अर्थप्रत्यक्षता पदार्थ में रहने से विषय स्वरूप होती है। तब यह आया कि इन्द्रिय से जो आत्मा के भीतर अर्थप्रत्यक्ष स्वरूप कार्य हुआ, अर्थप्रत्यक्षता उसमें रहती है तो कहिए यहां अर्थप्रत्यक्षता उस प्रत्यक्ष यानी वस्तु प्रतीति रूप ही हुई, किन्तु पदार्थनिष्ठ प्रत्यक्षता रूप नहीं । - प्र० - क्या वस्तु में रही अर्थप्रत्यक्षता इन्द्रिय का कार्य नहीं है कि उसको ज्ञान की अर्थप्रत्यक्षता से अलग कर रहे हैं ? Jain Education International उ०- हां, वह इन्द्रिय का कार्य नहीं है; वह अर्थप्रत्यक्षता तो भीतरी उत्पन्न हुए ज्ञानरूप अर्थप्रत्यक्ष का कार्य है। कारण, जब भीतर अर्थप्रत्यक्ष होता है तभी बाहर वस्तु में प्रत्यक्षता यानी प्रत्यक्षविषयता आती है। इन्द्रिय में ऐसा नहीं कि इन्द्रिय है तो बाहिर वस्तु में विषयता रहा करती है । यह तो, जब इन्द्रिय आत्मा के भीतर प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न करे, तभी संपादित होती है। तो इन्द्रिय के कार्यभूत अर्थप्रत्यक्षता तो भीतरी अर्थप्रत्यक्ष स्वरूप ही हुई, और वह अलग है; जब कि ज्ञान की बाहरी अर्थप्रत्यक्षता अलग है। ऐसे कार्यभेद होने से उनके कारणभूत इन्द्रिय और ज्ञान समस्वभाव नहीं हो सकते हैं । तब, इन्द्रिय के दृष्टान्त से ज्ञान अपनी सत्ता (विद्यमानता) मात्र से वस्तुज्ञापक कैसे कहा जा सके ? दोनों में समानता हो तो एक दूसरे के लिए दृष्टान्त बन सकता है। सारांश, इन्द्रिय स्वरूपसत् यानी अज्ञात रह कर वस्तुज्ञापक होती है, लेकिन ज्ञान तो ज्ञात होता हुआ ही वस्तुज्ञापक बनता है। यह भी स्वत: ज्ञात है, स्वसंवेद्य है, नहीं कि परत: ज्ञात । इस प्रकार अरहंत परमात्मा स्वसंवेद्य ज्ञान से बुद्ध हुए हैं, एवं वे और भव्यात्माओं को भी बुद्ध बनाते हैं, यानी बोधक हैं । तो स्तुति की गई बुद्धाणं बोहयाणं । २०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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