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________________ (ल० - ज्ञानग्राहकानुमानार्थं लिङ्गाभाव:-) नार्थप्रत्यक्षता लिङ्गं, यत् प्रत्यक्षपरिच्छेद्योऽर्थ एवार्थप्रत्यक्षता, प्रत्यक्षकर्मरूपतामापन्नोऽर्थ एव । न चेयमस्य विशिष्टावस्था विशेषणाप्रतीतौ प्रतीयत इति परिभावनीयम् ॥ _ (पं० -) किं च साध्याविनाभाविनो लिङ्गान्निश्चितात् साध्यनिश्चायकमनुमानं, न चात्र तथाविधं लिङ्गमस्ति, तथा चाह 'न' = नैव, 'अर्थप्रत्यक्षता' = लिङ्गान्तरासम्भवेना (प्र० .... संभवेऽपि) परैलिङ्गतया कल्पिता वक्ष्यमाणरूपार्थप्रत्यक्षता, 'लिङ्ग' = हेतुर्बुद्धिग्राहकानुमानस्य, कुत इत्याह यद्' = यस्मात्, 'प्रत्यक्षपरिच्छेद्योऽर्थ एव', न तु तत्परिच्छेदोऽपि, 'अर्थप्रत्यक्षता' लिङ्गाभिमता । एतदेव स्पष्टयति प्रत्यक्षकर्मरू पतां', प्रत्यक्षस्य = इन्द्रियज्ञानस्य, कर्मरू पता = विषयताम्, 'आपन्नोऽर्थ एव', न तु तद्व्यतिरिक्तं किञ्चित् । यदि नामैवं ततः किमित्याह 'न च', 'इयं' = प्रत्यक्षता, 'अस्य' = अर्थस्य, 'विशिष्टावस्था' प्रत्यक्षज्ञानविषयभावपरिणतिरूपा, 'विशेषणाप्रतीतौ', विशेषणस्य = प्रत्यक्षज्ञानस्य, अप्रतीतौ = असंवेदने, 'प्रतीयते' = निश्चीयते, इति परिभावनीयम् । न हि प्रदीपादिप्रकाशाप्रतीतौ तत्प्रकाशितघटादिप्रतीतिरुपलभ्यते । न चान्वयव्यतिरिरेकाभ्यामनिश्चिताद्धेतोः साध्यप्रतीतिरिति। उ० - मुस्कराइए मत, ज्ञानत्वादि सामान्य धर्म कोई अलग चीज नहीं है; वह तो व्यक्त्यात्मक ज्ञानादि स्वरूप ही है। जब व्यक्ति का नाश हो गया तो वह भी अचूक नष्ट ही हो गया; तो उसका भी अनुमानादि से ग्रहण कहां से कर सकते हैं? व्यक्ति के ज्ञान के विना सामान्य ज्ञान नहीं : प्र०-आप तो अनेकान्तवादी होने से सामान्य को एकान्तेन व्यक्ति स्वरूप यानी व्यक्ति से एकान्तेन अभिन्न नहीं मान सकते हैं; भिन्न भी मानना होगा। जब भिन्न है, तब वह सामान्य तो अनुमानादि से ग्राह्य क्यों न हो सके? उ० - ठीक है उस दृष्टि से आप सामान्य को ग्राह्य बनाना चाहें, किन्तु तब भी वह अशक्य है; क्यों कि नियम है कि सामान्य धर्म का ज्ञान उसका आश्रयव्यक्ति अज्ञात रहने पर नहीं हो सकता है। दृष्टान्त से, जो आदमी घड़े को ही नहीं जानता है, उसे घडेपन का क्या ख्याल होगा? तो यहां पर भी ज्ञानव्यक्ति जब ज्ञात नहीं है तो उसका सामान्य भी कैसे गृहीत हो सकता है ? - यह भी बात सोचने योग्य है । तात्पर्य; व्यक्ति के अभाव में सामान्य का भी अभाव है। एवं व्यक्ति के अज्ञात रहने पर सामान्य किसी तरह ज्ञात भी नहीं हो सकता। पेड़ आदि प्रमेय व्यक्तियों में ऐसी ही वस्तुस्थिति दिखाई पड़ती है; - पेड़पन पेड के अभाव में नहीं रह सकता, एवं पेड व्यक्ति अज्ञात रहने पर पेड़पन गृहीत भी हो सकता नहीं है। जब जब हम पेडपन को लक्ष में लेना चाहते हैं तब तब हमें किसी न किसी पेड़ का ख्याल पहले करना आवश्यक होता ही है। विशेषण अज्ञात रहने पर विशिष्ट की अप्रतीति : और भी बात है;- आप ज्ञान को स्वतः संवेद्य (ग्राह्य) न मानते हुए अनुमान से संवेद्य मानते हैं, लेकिन प्रश्न होगा कि कौन हेतु इस अनुमान का साधक होगा? क्योंकि अनुमान में जो साध्य है इसके साथ ठीक व्याप्त साधक हेतु, - अर्थात् कभी साध्य को छोड़कर न रहने वाले साधक हेतुका निर्णय अगर हुआ हो तभी अनुमान साध्य का निर्णय करा सकता है, यदि घरमें से धुआँ निकलता दिखाई पड़े तभी वहां भीतर आग जल रही है ऐसा २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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