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(ल० - ) एतैन ऋत्वार्त्तनिदर्शनं प्रत्युक्तं, न्यायानुपपत्तेः तदावृत्तौ तदवस्थाभावेन परिणामान्तरायोगात्,- अन्यथा तस्यावृत्तिरित्ययुक्तं , तस्य तदवस्थानिबन्धनत्वात्, अन्यथा तदहेतुकत्वापत्तेः । एवं न मुक्तः पुनर्भवे भवति मुक्तत्वविरोधात्, सर्वथा भवाधिकारनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति, तद्भावेन भावतस्तीर्णादिसिद्धिः ॥ २८ ॥
(पं० -) 'एतेन' = मृतस्यामृतभावप्रतिषेधेन, 'ऋत्वावर्त्तनिदर्शनं', 'ऋतुर्व्यतीतः परिवर्त्तते पुनः' इति दृष्टान्तः प्रत्युक्तं = निराकृतं; कुत इत्याह'न्यायानुपपत्तेः' । तामेव दर्शयति तदावृत्तौ', तस्य = ऋतोर्वसन्तादेः, आवृत्तौ = पुनर्भवने, 'तदवस्थाभावेन', तस्याः = अतीतवसन्तादिऋतुहेतुकायाश्चूतादेरङ्कुरादिकायाः पुरुषस्य च बालकुमारादिकाया अवस्थाया 'भावेन' = प्राप्त्या, परिमाणान्तरभावात् स एव प्राक्परिणामः प्राप्नोति नापर इति भावः विपक्षे बाधामाह 'अन्यथा' = परिणामान्तरे, 'तदावृत्तिः' तस्यः = ऋतो: आवृत्तिः = पुनर्भवनम्, 'इति' = एतद्, 'अयुक्तम्' = असाम्प्रतं, कुत इत्याह 'तस्य' = ऋतोः, 'तदवस्थानिबन्धनत्वात्', तस्याः = चूतादेरङ्करिकायाः, अवस्थाया निबन्धनत्वात् । तदवस्थाजनन ( प्र० .... जनक) स्वभावो ह्यसौ ऋतुः, कथमिवासौ अवस्था तत्सन्निधौ न स्यात् ? एतदेव व्यतिरेकत आह 'अन्यथा' = तत्सन्निधानेऽप्यभवने, 'तदहेतुकत्वोपपत्तेः', सः = अतीतऋतुलक्षणो, अहेतुर्यस्याः सा तथा, तद्भावस्तत्त्वं, तदुपपत्तेः; तद्धेतुकासौ न प्राप्नोतीति भावः । २८ ।
उ० - मरे हुओं का अ-मृत भाव नहीं होता है इस कथन से मुक्त हुओं का अमुक्त भाव यानी पुनर्भव निषिद्ध हो ही जाता है। पुनर्भव होने में ऋतु का दृष्टान्त सङ्गत नहीं हो सकता; क्यों कि वसन्तादि ऋतुओं का तो जब पुनरागमन होता है तब भूतकालीन ऐसी ऋतुओं के वश आम्रादि वृक्षों को जैसी अङ्कुरादि की अवस्था प्राप्त होती थी वैसी ही प्राप्त होती है, अन्य ढंग की नहीं । इस प्रकार पुरुष को कालानुसार उसी बाल्यावस्था, कुमारावस्था इत्यादि प्राप्त होती है। प्रतिवर्ष यदि इसी प्रकार की अङ्करादिअवस्था प्राप्त न होती हो, और अन्य ढंग की ही अवस्था संप्राप्त होती हो, तो 'उसी ऋतु की आवृत्ति होती रही' - यह कहना अयुक्त है; क्यों कि उसी ऋतु तो पूर्व प्रकार की ही अङ्करादि अवस्था का कारण है। जब वह ऋतु तो उसी अवस्था को पैदा करने में कारण है, तब वह अवस्था उसके संनिधान में क्यों न उत्पन्न हो ? इसको उलटे रूप से देखा जाए तो कह सकते हैं कि अगर उसके संनिधान में भी वह न हो तो उस अवस्था में उस ऋतु की कारणाधीनता उत्पन्न नहीं हो सकती है, तात्पर्य उस अङ्करादि अवस्था का उस ऋतु से अवश्य जन्य होना प्राप्त नहीं होता है।
___ इससे यह फलित हुआ कि ऋतु की पुनरावृत्ति का दृष्टान्त यहां असङ्गत है तो इस के बल पर मुक्तात्मा का संसार में पुनरावर्तन सिद्ध नहीं हो सकता है। और, पुनरावर्तन में कारणीभूत आयुष्यादि कर्म न होने से मुक्त जीव फिर संसार में नहीं आ सकता है, संसारी नहीं हो सकता है; क्यों कि मुक्तत्व के साथ संसारिता का विरोध है; संसाराधिकार की निवृत्ति यही तो मोक्ष है। तो अर्हत्परमात्मा ऐसे अविनाशी मुक्तभाव से संपन्न होने के कारण वे संसार से तीर्ण है, तैर गए हैं; और अन्यों के तारक हैं, - यह प्रमाण सिद्ध हुआ।। २८ ॥
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