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________________ २९. बुद्धाणं - बोहयाणं (बुद्धेभ्यो बोधकेभ्यः ) ( ल० ज्ञानाप्रत्यक्षत्वगोचरमीमांसकमतनिरसनम् ) एतेऽपि परोक्षज्ञानवादिभिर्मीमां सकभेदैर्नीत्या अबुद्धादय एवेष्यन्ते 'अप्रत्यक्षा च नो बुद्धिः प्रत्यक्षोऽर्थ:' इति वचनाद्; एतद्व्यवच्छेदार्थमाह 'बुद्धेभ्यः बोधकेभ्यः' । अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते जगत्यपरोपदेशेन जीवाजीवादिरूपं तत्त्वं बुद्धवन्तो बुद्धाः, स्वसंविदितेन ज्ञानेन, अन्यथा बोधायोगात् । (पं० -) 'अन्यथा बोधे' त्यादि, अन्यथा = अस्वसंविदितत्वे बुद्धेः, बोधायोगात् = जीवादितत्त्वस्य संवेदनायोगात् । 1 २९. बुद्धाणं बोहयाणं (बुद्ध और बोधक के प्रति ) ज्ञान अप्रत्यक्ष का मीमांसकमत :- ऐसे भी परमात्मा बुद्ध आदि नहीं है, इस प्रकार मीमांसकमत वालों के विभाग कहते हैं। मीमांसक दर्शन मानने वालों के कई प्रकार हैं। इनमें प्रभाकर के अनुयायी तो ज्ञान को स्वत: संवेद्य मानते हैं; किन्तु कुमारिल भट्ट के अनुयायी ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। उनका शास्त्रवचन है कि ‘अप्रत्यक्षा च नो बुद्धि:, प्रत्यक्षोऽर्थ:, ' - अर्थात् 'अपना ज्ञान खुद प्रत्यक्ष नहीं है, ज्ञान में भासमान घड़ा आदि पदार्थ प्रत्यक्ष है।' वे कहते हैं कि "पदार्थ के साथ ज्ञान भी यदि प्रत्यक्ष हो तो पहला प्रत्यक्षानुभव 'यह घड़ा है' इतना नहीं किन्तु साथ साथ 'यह घड़ा का ज्ञान हैं, ' - यह भी होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता है, वरन् 'यह घडा हैं' - इस प्रत्यक्ष-अनुभव के बाद में 'मुझ से यह घड़ा ज्ञात हुआ' ऐसा अनुभव होता है, जो कि घड़े में रही हुई ज्ञातता का प्रत्यक्ष-अनुभव है। 'यह घड़ा ज्ञात है' इसका मतलब यही है कि यह घड़ा ज्ञातता वाला है; ' इसमें ज्ञातता प्रत्यक्ष हुई, और इस ज्ञातता को देख कर 'आत्मा में ज्ञान हुआ है' - ऐसा ज्ञान का अनुमान यानी परोक्ष - अनुभव होता है । तो ज्ञान प्रत्यक्ष न होने से यह युक्तिप्राप्त है कि परमात्मा बुद्ध यानी प्रत्यक्षसंवदेन वाले और दूसरों को ऐसे बुद्ध बनाने वाले नहीं हो सकते।" यह मीमांसकमत हुआ । 'बुद्ध' का अर्थ : मीमांसकमत से विरुद्ध : इस मत का खंडन करने के लिए यहां स्तुति की जाती है कि 'बुद्ध और बोधक अरहंत के प्रति मेरा नमस्कार हो !' 'बुद्ध' का भाव यह है कि जब सारा जगत अज्ञान स्वरूप भाव निद्रा में अत्यन्त सोया हुआ है, तब अर्हद् भगवान किसी के उपदेश से नहीं किन्तु स्वीय जाग्रतिपुरुषार्थ से भावनिद्रा को त्याग कर जीव अजीवादिरूप तत्त्व के शुद्ध ज्ञान वाले हुए हैं। जगत की, मन-वचन-काया से स्थूल सूक्ष्म जीवों की जो हिंसा, असत्यादि पाप, एवं विषयकषायादि की जो पापप्रवृत्ति चल रही है यही उसकी अज्ञानदशा की अर्थात् जीवअजीव, आश्रव - संवर, इत्यादि तत्त्वों के बिनजानकारी की सूचक है। अगर जानकारी होती, बुद्धता होती तो जीवों से हिंसा आदि पाप और जड के लिए क्रोधादि आश्रवों का सेवन क्यों किया जाता ? भगवान इन पाप - आश्रवों से दूर हो गये हैं क्यों कि आप तत्त्वबोध से संपन्न हुए है। यह बुद्धता भी गुरुउपदेशवश नहीं किन्तु विशिष्ट तथाभव्यत्ववश स्वयं हुई है। और बुद्धता स्वयंप्रकाश ज्ञान से हुई है। अन्यथा अगर ज्ञान स्वतः प्रकाश न हो अर्थात् विषय के साथ साथ अपना भी संवेदन न करा सकता हो तो वह जीव, अजीव आदि विषयों का भी संवेदन नहीं करा सकता । काष्ठादि पदार्थ में यह दिखाई पडता है कि वह स्वप्रकाश करने में असमर्थ होता हुआ दूसरों को भी प्रकाश नहीं दे सकता है। ज्ञान परप्रकाशक है तो स्वप्रकाशक भी है इससे ज्ञान की यह स्वसंवेद्यता १९९ For Private & Personal Use Only Jain Education International ܣܩܪܝܪ www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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