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________________ ( ल० - न क्षीणसंसारस्य भवाधिकार :-) न ह्यस्यायुष्कान्तरवद् भवाधिकारान्तरं तद्भा वेऽत्यन्तमरणवन्मुक्त्यसिद्धेः, तत्सिद्धौ च तद्भावेन भवनाभावः, हेत्वभावात् । न हि मृतस्तद्भावेन भवति मरणभावविरोधात् । = (पं० -) इदमेव भावयति 'न' = नैव, 'हिः ' = यस्माद्, 'अस्य' = तीर्णस्य (प्र० . तीर्थकरस्य), 'आयुष्कान्तरवत्' = नारकाद्यायुष्कविशेषवद्, 'भवाधिकारान्तरं' = क्षीणाद्भवाधिकाराद् अन्यो भवाधिकारो, येनासाविह पुनरावर्त्तेत । विपक्षे बाधामाह 'तद्भावे', तस्य = आयुष्यकान्तरस्य भवाधिकारान्तरस्य च, भावे : सत्तायाम्, 'अत्यन्तमरणवत्' = सर्व्वप्रकारजीवितक्षये (प्र क्षयेण ) मरणस्येव, 'मुक्त्यसिद्धेः', मुक्तेः तीर्णतायाः, असिद्धेः = अयोगात् । व्यतिरेकमाह 'तत्सिद्धौ च', तस्य = अत्यन्तमरणस्य मुक्तेर्वा, सिद्धौ = अभ्युपगतायां, 'तद्भावेन' आयुष्यकान्तरसाध्येन भवाधिकारान्तरसाध्येन च भावेन, 'भवनाभावः ' परिणतेरभावः; कुत इत्याह 'हेत्वभावात्, ' हेतोः = आयुष्कान्तरस्य भवाधिकारान्तरस्य च अभावात् । पुनस्तदेव प्रतिवस्तूपमया भावयति ‘न हि, ' 'मृतः ' = परासुः, 'तद्भावेन' = अतीतामृतभावेन 'भवति', कथमित्याह 'मरणभावविरोधात् ' = मरणामरणयोरात्यन्तिको विरोध इतिकृत्वा । = = नहीं हो सकता है; क्यों कि भवावर्त का, आगे कहेंगे वह, कारण भगवान के संनिधान में है ही नहीं । मुक्ति और भवाधिकार परस्पर विरुद्ध है। कारण यह है कि भव पार कर गए तीर्थंकर देव को अब जैसे संसार की नारकादि किसी गति का आयुष्य भोगने का अवशिष्ट नहीं है, वैसे ही क्षीण हो चुके संसाराधिकार अतिरिक्त कोई संसाराधिकार भी है ही नहीं कि जिस कारण वश उनको संसार का पुनर्भवन हो । संसाराधिकार का मतलब है संसार की योग्यता। आज तक उनका जो संसार चलता था वह और उसकी योग्यता दोनों ही नष्ट हो गए, और अब किसी नये संसार की योग्यता उन्हें है नहीं; इस कारण पुनः संसार हो सकता नहीं है। ऐसा न मानने में यह आपत्ति है कि अगर दूसरा आयुष्य और भवाधिकार विद्यमान हो, तब तो सर्वप्रकार से जीवित का क्षय होने पर होने वाले मरण के मुताबिक मोक्ष यानी भवपार की प्राप्ति नहीं हो सकती है। और यदि आत्यन्तिक मृत्यु या मुक्ति आप स्वीकार करते हैं, तो यही फलित होता है, कि वह जीव जीवित एवं संसार के भाव से परिणत नहीं हो सकता है; क्यों कि अब पुराने आयुष्य एवं भवाधिकार तो क्षीण हो चुके, और नया जीवित एवं संसार हां अन्य आयुष्य और र अन्य भवाधिकार से साध्य हो सकता है, लेकिन ऐसा कारणीभूत दूसरा कोई आयुष्य एवं भवाधिकार उसमें अब है नहीं । यही बात प्रतिवस्तु की उपमा से सोच कर देखिए। जो गतप्राण हो गया है वह अब अतीत अ-मृत यानी सजीवन भाव से संपन्न नहीं हो सकता है। क्यों नहि होता है ? इसलिए कि आयुष्य का अधिकार नष्ट हो गया है । अगर पुन: अ-मृत (सजीवन) भाव वाला होता हो, तब तो मृत्यु कहां हुई ? मृत्यु और अ-मरण का परस्पर अत्यन्त विरोध है; मरा है तो जीता नहीं, और जीता है तो मरा नहीं। ऐसे ही, मुक्ति हुई है तो भवाधिकार नहीं, और भवाधिकार है तो मुक्ति नहीं । मोक्ष और भवाधिकार में अत्यन्त विरोध है I ऋतुओं की तरह मुक्तों का पुनरागमन नहीं : प्रo - ऋतुओं के दृष्टान्त से, अर्थात् जिस प्रकार उन्हीं ऋतुओं की पुनरावृत्ति होती है, इस प्रकार मुक्त हुए जीवों को भवों की पुनरावृत्ति अर्थात् पुनर्भव क्यों न हो ? Jain Education International १९७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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