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________________ २८. तिण्णाणं तारयाणं (तीर्णेभ्यस्तारकेभ्यः ) (ल० - कालाधीनावर्तवादिमतनिरास :-) एते चावर्त्तकालकारणवादिभिरनन्तशिष्यैर्भाव - तोऽतीर्णादय एवेष्यन्ते, 'काल एव कृत्स्नं जगदावर्त्तयती' तिवचनात् । एतन्निरासायाह 'तीर्णेभ्यस्तारकेभ्यः'। ज्ञानदर्शनचारित्रपोतेन भवार्णवं तीर्णवन्तस्तीर्णाः । नैतेषां जीवितावर्त्तवद् भवावर्तो, निबन्धनाभावात् । ( पं० - ) 'एते चावर्त्तकालकारणवादिभि 'रिति, आवर्त्तस्य = नरनारकादिपर्यायपरिवर्तरूपस्य, काल एव, कारणं = निमित्तमिति, (वादिभिः =) वावदूकै: । 'तीर्णाः' । 'नैतेषामि 'त्यादि, न = नैव, एतेषां तीर्णानां, 'जीवितावर्तवत्,' जीवितस्य प्रागनुभूतस्य 'आवर्त्तवत्' = पुनर्भवनमिव, 'भवावर्त्तो' भवस्य कर्म्माष्टकोदयलक्षणस्य क्षीणस्य, आवर्त्तः प्रागक्तुरूप:, कुत इत्याह 'निबन्धनाभावात्', निबन्धनस्य हेतोर्वक्ष्यमाणस्य अभावात् । = ही उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु उनको रविकिरणादितुल्य चैतन्यातिरिक्त पौद्गलिक कर्म स्वरूप सहकारी सत् निमित्तों की भी अपेक्षा रहती हैं; ऐसी पूर्ववत् आलोचना करनी चाहिए। तो चैतन्य की माफिक रागादि-अनुभव, कर्म, इत्यादि सत् सिध्ध होते हैं; असत नहीं । फलतः उन पर विजय भी असत् नहीं । इसलिए तथाभव्यत्व प्रमुख सामग्री वश उत्पन्न होने वाली चारित्र की याने विरतिभाव की परिणति से रागादि का निग्रह कर देना, इत्यादि वस्तु भ्रान्तिरूप नहीं किन्तु वास्तविक है और इनके जरिए वास्तविक जिन, तीर्ण आदि सिद्ध होते हैं । तो परमात्मा में तात्त्विक जिनपन आदि की सिध्धि हुई ॥ २७ ॥ जिस प्रकार भगवानने अपने रागादि को पराजित कर दिया, वैसे औरों को रागादिनिग्रह कराते हैं । २८. तिण्णाणं तारयाणं (तैरने वालों और तैराने वालों के प्रति ) अनन्तमत: संसारावर्त कालाधीन ही है ? : अब 'तिण्णाणं तारयाणं' पद की व्याख्या । 'अनन्त' नामक वादी के शिष्य मानते हैं कि परमात्मा वस्तुगत्या तीर्ण-तैरे हुए नहीं होते हैं, अतीर्ण ही रहते हैं; क्यों कि वे 'काल एव कृत्स्नं जगदावर्त्तयति' ऐसे अपने शास्त्रवचन से कहते है कि "सारे जगत का परिवर्तन काल ही करता रहता है। इसलिए जीव की नरत्व, नारकत्व, इत्यादि अवस्थाओं का परिवर्तन भी काल करता ही है। तो जीव का इन अवस्थाओं से बिल्कुल पार हो जाना कैसे शक्य है कि जहां यावत्काल ऋतुओं की तरह नरत्वादि पर्यायों का परिवर्तन रहेगा ही ?" अनन्तमतखण्डन : मुक्त को निमित्त के अभाव से भव नहीं : इस मत के निरसन हेतु 'तिण्णाणं तारयाणं' यह विशेषण भगवान को दिया गया। इसका अर्थ है भवसागर को तैरने वालों और तैराने वालों के प्रति मेरा नमस्कार हो । वह तैराना सम्यग्ज्ञान- दर्शन - चारित्र स्वरूप जहाजों के आलम्बन से हो सकता है; क्यों कि अज्ञान- - मिथ्यात्व - कषायों से जन्य ऐसा संसार इनके प्रतिपक्ष से अन्त पा जाए, इसमें कोई विवाद नहीं । अरहंत परमात्माने ज्ञानादि की उत्कृष्ट साधना की है, इससे वे संसारसमुद्र को पार कर गए हैं। अब तीर्ण हो गए उनको जिस प्रकार पहले भुक्त किये गए जीवित का आवर्त यानी पुनर्भवन नहीं होता है, इस प्रकार ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के उदय स्वरूप संसार क्षीण हो जाने से उसका भव में पुनर्भवन Jain Education International १९६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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