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( ल० - भ्रान्तिकारणान्यपि नावस्तु - ) आविद्वदङ्गनादिसिद्धमेतत् । न चायं पुरुषमात्रनिमित्त:, सर्वत्र सदाऽभावानुपपत्तेः । नैवं चितिमात्रनिबन्धना रागादय इति भावनीयम् । एवं च तथा भव्यत्वादिसामग्रीसमुद्भूतचरणपरिणामतो रागादिजेतृत्वादिना तात्त्विकजिनादिसिद्धिः । २७ ।
( पं० - ) 'आविद्वदङ्गनादिसिद्धमेतत्' सर्व्वजनप्रतीतमित्यर्थः । अत्रैव विशेषमाह 'न च'' अयं' = मृगतृष्णिकाद्यनुभवः, 'पुरुषमात्रनिमित्तः', पुरुषमात्रं = पुरुष एव तदनुभववान् स्वव्यतिरिक्तरविकरादिकारणनिरपेक्षो निमित्तं = हेतुर्यस्य स तथा । कुत इत्याह 'सर्वत्र' क्षेत्रे दृष्टरि वा, 'सदा' = सर्वकालम्, 'अभावानुपपत्तेः'=अनुपरमप्राप्तेः । प्रस्तुतयोजनमाह, 'न'=नैव, 'एवं'=मृगतृष्णिकाद्यनुभववत्, 'चितिमात्रनिबन्धना रागादयः', किन्तु चैतन्यव्यतिरिक्तपौद्गलिककर्म्मसहकारिनिमित्ताः, 'इति भावनीयं' = प्राग्वदस्य भावना कार्या ।
अगर आप कहें 'कोई असद् वस्तु ही प्रस्तुत भ्रान्ति का निमित्त है,' तो यह भी युक्ति-युक्त नहीं, क्यों कि असद् वस्तु का अर्थ तो, कोई वस्तु ही नहीं, - ऐसा होगा, और इससे इस प्रकार अतिप्रसङ्ग लगेगा कि कोई हेतु न होने से भ्रान्ति सदा बनी रहेगी या कभी भी नहीं होगी । फिर भी शङ्का हो सकती है कि 'शुद्ध चैतन्य मात्र से, - अर्थात् अतिरिक्त कर्म स्वरूप सहकारी कारण से रहित चैतन्य से, - सभी भ्रान्ति क्या न हो सके ?' लेकिन ऐसा अगर स्वीकार किया जाए, तो भ्रान्ति के निमित्त रूप से स्वीकृत शुद्ध चैतन्य शाश्वत होने से भ्रान्तिमात्र का कभी उच्छेद ही नहीं होगा, वह भी सदा बनी रहेगी। इससे जीव के संसार का भी कभी उच्छेद नहीं होगा, तो कभी मोक्ष भी नहीं हो सकेगा । जिस अवस्था को आप मोक्ष कहने को जाएँगे वहां भी चैतन्य रूप निमित्त विद्यमान होने से भ्रान्ति रूप कार्य बना रहेगा; तो वह तो तात्त्विक मोक्ष ही नहीं ।
मृगजल का अनुभव असत् नहीं :- अथवा मान भी लें कि चैतन्य के ही कारण भ्रान्तिमात्र होती है, तब भी प्रश्न होगा कि वह भ्रान्ति सत् है या असत् ? सत् मान सकते नहीं; और वह असत् नहीं हो सकती; क्यों कि यह अनुभवबाध है, - रागादिरूप इस भ्रान्ति का स्वयं संवेदन तो होता है; अगर भ्रान्ति असत् अलीक हो तो जिस प्रकार असत् शशशृङ्ग । (खरहे के सींग) आदि अनुभव में नहीं आते हैं इस प्रकार वह अनुभव में कैसे आए इस भ्रान्ति - वस्तु को उलटे रूप से देखे तो प्रतिपक्ष दृष्टान्त मिलता है; - सत्य रूप से गृहीत जल के अनुभव की तो क्या बात, लेकिन असत् मृगजल का भी जो भ्रान्ति रूप दर्शन होता है वह अनुभव कुछ वस्तु नहीं ऐसा नहीं है; अर्थात् अनुभव रूप से असत् नहीं है। एवं मोतीबिन्दु वाले को सञ्जात मिथ्या द्विचन्द्रादि का ज्ञान ज्ञानरूप से असत् नहीं है। अलबत्ता ज्ञान का विषय तो मिथ्या, अलीक, असत् है, अर्थात् वह मृगजल - द्विचन्द्रादि तो कुछ वस्तु नहीं है; लेकिन उसका जो ज्ञान हो रहा है वह कुछ वस्तु नहीं है, वैसा नहीं; ज्ञानवस्तु तो ज्ञान रूप से विद्यमान है, सत् है; हां, अपने विषय के सहित वह क्या है, तो कि असत् है, भ्रान्तिरूप है ।
मृगजलानुभव के कारण भी असत् नहीं :- मृगजलानुभव विद्वान से ले कर एक साधारण अबला तक को सिद्ध है अर्थात् सर्वजनप्रसिद्ध है। यहां अनुभव के सद्भाव उपरान्त और भी यह विशेष है कि ऐसा नहीं कि-मृगजल का अनुभव उस अनुभव करने वाले पुरुष मात्र की वजह ही होता है, और पुरुष से अतिरिक्त रविकिरणादि कारणों की वहां कोई अपेक्षा नहीं;' क्यों कि तब तो ऐसा अनुभव सर्व क्षेत्र में या सर्व द्रष्टा पुरुष को सदा होता ही रहेगा, कभी वह उपरत ही नहीं होगा । किन्तु सदा और सर्वत्र ऐसा मृगजलानुभव होता रहता नहीं है। वह अनुभव तो जब और जहां रविकिरणादि निमित्त मिले, तब और वहीं होता है। इसलिए सिद्ध होता है कि रविकिरणादि सत् निमित्त की उसे अपेक्षा है। बस, इसी मृगजलानुभव की तरह रागादि भी चैतन्य मात्र की वज़ह
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