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________________ _(ल० - मृगतृष्णिकाजलानुभवोऽपि न सर्वथा अवस्तु-) न चासदेव निमित्तम्, अतिप्रसङ्गात्; चितिमात्रादेव तु तदभ्युपगमेऽनुपरम इत्यनिर्मोक्षप्रसङ्गः । तथापि तदसत्त्वेऽनुभवबाधा । न हि मृगतृष्णिकादावपि जलाद्यनुभवोऽनुभवात्मनाप्यसन्नेव । (पं० -) पराशङ्कापरिहारायाह 'न च' = नैव, 'असदेव' न किञ्चिदेवेत्यर्थः 'निमित्तं', प्रकृतभ्रान्तेः। हेतुमाह 'अतिप्रसङ्गात्' = नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतो'रिति प्राप्तेरिति । पुनरप्याशङ्कयाह 'चितिमात्रादेव' = चैतन्यमात्रादेव, 'तु' = पुनः स्वव्यतिरिक्तकर्मलक्षणसहकारिरहितात्, 'तदभ्युपगमे' = भ्रान्तिमात्राभ्युपगमे, 'अनुपरमो' = भ्रान्तिमात्रस्यानुच्छेदो, अभ्रान्तज्ञानेष्वपि भ्रान्तिनिमित्ततया परिकल्पितस्य चितिमात्रस्य भावात्, ततः किमित्याह 'इति' = एवाः, 'अनिर्मोक्षप्रसङ्गः' = संसारानुच्छेदापत्तिः, चित्रिमात्रस्य मोक्षेऽपि भावात् । अभ्युपगम्यापि दूषणमाह 'तथापि' = चितिमात्रादेव भ्रान्तिमात्राभ्युपगमेऽपि, 'तदसत्त्वे' = भ्रान्तिमात्रासत्त्वे, 'अनुभवबाधा' तस्य स्वयं संवेदनं न प्राप्नोतीति, न ह्यसच्छशश्रृङ्गाद्यनुभूयत इति । एनामेव व्यतिरेकतः प्रतिवस्तूपन्यासेन भावयन्नाह 'न हि मृगतृष्णिकादावपि' = मरुमरीचिकाद्विचन्द्रादावपि मिथ्यारूपे विषये, आस्तां सत्याभिमते जलादौ, 'अनुभवः' = तज्ज्ञानवृत्तिः, 'अनुभवात्मनापि' = ज्ञानात्मनापि, 'असन्नेव' सविषयतया तु स्यादप्यसन्निति 'अपि' शब्दार्थः ।। यहां तत्त्वान्तवादी के मत के खण्डन में अरहंत प्रभु को 'जिणाणं जावयाणं'... इत्यादि विशेषण दिये जाते हैं । 'जिणाणं जावयाणं' का अर्थ है जिन के प्रति और जापक यानी जिन बनाने वालों के प्रति मेरा नमस्कार हो। बिना निमित्त भ्रान्ति कैसे ? :- "जिणाणं' यानी जिन के प्रति, इस में 'जिन' जो होते हैं वे रागद्वेष, क्रोधादि कषाय, काम - हास्य, शोक - हर्ष - उद्वेग - भय - जुगुप्सा स्वरूप नोकषाय, इन्द्रिय, क्षुधादि परिसह, देवादि के उपसर्ग (उपद्रव), और ज्ञानावरणादि घाती कर्मों पर विजय प्राप्त कर के होते हैं। विजय प्राप्त करने का अर्थ यह है कि इनका निग्रह करना, रागादि को उठने न देना, हर्षादि को उठने न देना, इन्द्रियों को विषयाकृष्ट न होने देना, कैसे भी परिसह-उपसर्गों को प्रसन्नता से कर्मक्षयार्थ सहन कर लेना; तात्पर्य, इन रागादिको वश न होना, इनसे स्वात्मा को बिलकुल विकृत न होने देना, स्वात्मा की तत्त्वदृष्टि - विरक्तता -- शभाध्यवसाय - विरतिभाव - समता - समाधि - शुभध्यान इत्यादि को अविचलित रखना। अब जैसे तत्त्वान्तवादी कहते है, इस प्रकार, यदि ये रागादि बिलकुल असत् ही होते, तो इनका निग्रह करने की बात ही क्या ? क्यों कि असत् अर्थात् अविद्यमान होने से ही इसके पर निग्रह-अनुग्रहादि कोई भी लोकव्यवहार होने की योग्यता ही नही है; जिस प्रकार वन्ध्यापुत्र है ही नहीं, तो इसका निग्रह - अनुग्रह क्या ? असत् यह निग्रहानुग्रहादि को योग्य न होने से असत् रागादि दोष, वे जय के विषय ही नहीं बन सकते हैं। लेकिन रागादि का निग्रह करना, यह तो आप भी कहते हैं। इसलिए सारांश यह है कि 'भ्रान्तिमात्रम् असत्' इस वचन से रागादि और इनके निग्रह को शुद्ध भ्रान्ति रूपता की कल्पना करना यह सरासर असङ्गत ही हैं। रागादि ये भ्रान्ति है यह भी आप कैसे कह सकते हैं ? क्यों कि भ्रान्ति होने में कोई निमित्त चाहिए । जीव से पृथक् कर्म स्वरूप कोई निमित्त अगर हो तभी उस कर्म वश भ्रान्ति बन सकती है। बिना किसी निमित्त यदि भ्रान्ति बनती रहे तो उसको शाश्वत होते रहने में कौन रोक सकता है ? फलतः कभी किसीका मोक्ष हो ही नहीं सकेगा। असत या चैतन्य को भ्रान्ति का निमित्त होने में बाधा : १९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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