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________________ (ल०-भान्तिन निनिमित्तका:-) तत्र रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मजेतृत्वाज्जिनाः । न खल्वेषामसतां जयः, असत्त्वादेव हि सकलव्यवहारगोचरातीतत्वेन जयविषयताऽयोगात् । भ्रान्तिमात्रकल्पनाप्येषामसङ्गतैव, निमित्तमन्तरेण भ्रान्तेरयोगात् । (पं० -) 'ने'त्यादि, न खलु = नैव, एषां = रागादीनाम् ‘असताम्' = अविद्यमाननां, ‘जयो' = निग्रहः कुत इत्याह 'असत्त्वादेव' = अविद्यमानत्वादेव, 'हि' = स्फुटं, सकलव्यवहारगोचरातीतत्वेन = निग्रहानुग्रहादिनिखिललोकव्यवहारयोग्यतापेतत्वेन वान्ध्येयादिवत्, ‘जयविषयताऽयोगात्' = जयक्रियां प्रति विषयभावायोगात् । अभ्युच्चयमाह 'भ्रान्तिमात्रकल्पनापि' भ्रान्तिमात्रमसदविद्यमानमितिवचनात्, न केवलं जय इति ‘अपि' शब्दार्थः, 'एषां' = रागादीनाम्, 'असङ्गतैव' = अघटमाना (एव), कुत इत्याह 'निमित्तं' जीवात्पृथक्कर्मरूपम्, 'अन्तरेण' = विना, भ्रान्तेरयोगात् । बौद्ध की ४ शाखाएँ :- (१) बुद्धिमान 'वैभाषिक' नाम की शाखा वाले कहते हैं कि जैसा आभ्यन्तर ज्ञान प्रतीत होता है इसके अनुसार बाह्य पदार्थ भी सत् है; क्यों कि विना बाह्य पदार्थ शुद्ध ज्ञान मात्र से खान - पान, ग्रहण - त्याग, इत्यादि व्यवहार नहीं हो सकता है। (२) 'सौत्रान्तिक' शाखा वाले कहते हैं कि बाह्य पदार्थ है तो सही, किन्तु वे अतीन्द्रिय हैं, किन्तु वैभाषिक मानते हैं उस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय नहीं हैं; क्यों कि वे क्षणिक होने की वजह इन्द्रिय संपर्क होते ही प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होने के पूर्व ही नष्ट हो जाते हैं तो प्रत्यक्ष ज्ञान जो विषय समकाल ही उत्पन्न होता है उससे कैसे जाने जाएँ ? वे तो ज्ञान के संवेदन पर से अकल्पनीय यानी अनुमेय होते हैं कि 'ऐसा आभ्यन्तर नीलादि आकार का संवेदन ऐसे नीलादि अर्थ के बिना हो नहीं सकता, इसलिए वैसे नीलादि अर्थ बाह्य सत् होने चाहिए।' इस मत में प्रत्यक्ष तो सिर्फ उस ज्ञान का स्वस्वरूप ही है (३) 'योगाचार' नाम की तीसरी शाखा वालों का कथन यह है कि बाह्य अर्थ जैसी कोई चीज है ही नहीं ; क्यों कि उपलब्धि के समकाल में ही वे दीखते हैं, बिना उपलब्धि कोई भी पदार्थ प्रतीत नहीं होता है; इसलिए विज्ञान मात्र ही सत् है और दीखता अर्थ तो उसका आकार मात्र है। योगाचार मत ज्ञान को साकार मानता है। (४) 'माध्यमिक' शाखा वाले बुद्धि का उपयोग कर मानते हैं कि एक मात्र शुद्ध स्वच्छ संवित् यानी निराकार ज्ञान ही सत् है, और सभी दृश्यमान साकार ज्ञान एवं बाह्य पदार्थ असत् है; क्यों कि वे होने में कई विरोध, अनुपपत्ति वगैरह बाधक हैं। ___ चारों ही शाखा क्षणिकवादी तो हैं ही, लेकिन पहली दो शाखाएँ बाह्य अर्थ मानती है,- तो वे बौद्धमतप्रणेता बुद्ध को सत् मानती हैं और बौद्ध के कई नाम बताती हैं, जैसे कि, - शौद्धोदनि, दशबल, बुद्ध, शाक्य, तथागत, सुगत, मारजित, अद्वयवादी, समन्तभद्र, जिन और सिद्धार्थ । अब इनमें 'जिन' शब्द भी उल्लिखित होने से वैभाषिक-सौत्रान्तिक को बुद्ध जिन है ऐसा स्वीकृत है। योगाचार - मत वालों को साकार ज्ञान मान्य है तो साकार जिन भी ज्ञान रूप से स्वीकार्य होना मालम पडता है। साकार में पहले रागद्वेषादि के अशुद्ध आकार थे, अब उनका विजय कर वीतरागतादि शुद्ध आकार प्रगट हुए । लेकिन माध्यमिकमत वालों को शुद्ध निराकार ज्ञान मान्य होने से रागादि के आकार ही वस्तुरूप से मान्य नहीं है तो उनको जितना क्या ? अत: 'जिन' 'तीर्ण' आदि भी मान्य नहीं है।" १९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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