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________________ २७. जिणाणं जावयाणं (जिनेभ्यः जापकेभ्यः) _(ल० - कल्पिताविद्याप्ररू पकतत्त्वान्तवादिमतखण्डनम्-) एतेऽपि कल्पिताविद्यावादि - भिस्तत्त्वान्तवादिभिः परमार्थेनाजिनादय एवेष्यन्ते 'भ्रान्तिमात्रमसदविद्ये 'ति वचनाद्, एतद्व्यपोहायाह 'जिणाणं जावयाणं' - जिनेभ्यः जापकेभ्यः । (पं० -) 'तत्त्वान्तवादिभिरिति, तत्त्वान्तं तत्त्वनिष्ठारूपं निराकारं स्वच्छसंवेदनमेव वस्तुतया वदितुं शीलं येषां ते तथा तैः । एते च सुगतशिष्यचतुर्थप्रस्थानतिनो माध्यमिका इति सम्भाव्यते; तेषामेव निराकारं स्वच्छसंवेदनमात्रमन्तरेण संवेदनान्तराणां भ्रान्तिमात्रतया एकान्तत एवासत्त्वाभ्युपगमात् । तथा च सौगतप्रस्थानचतुष्टयलक्षणमिदं, यथाः 'अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणोच्यते, प्रत्यक्षो न हि बाह्यवस्तुविसरः सूत्रान्तिकेराश्रितः । योगाचारमतानुगैरभिहिता साकारबुद्धिः परा, मन्यन्ते बत मध्यमाः कृतधियः स्वच्छां परां संविदम् ॥ ___ इति । 'प्रत्यक्षो न हि बाह्यवस्तुविसर' इति, यतोऽसावालम्बनप्रत्ययत्वेन स्वजन्यप्रत्यक्षज्ञानकाले क्षणिकत्वेन व्यावृत्तत्वात् तज्ज्ञानगतनीलाद्याकारान्यथानुपपत्तिवशेन पश्चादनुमेय एव, प्रत्यक्षस्तु तज्ज्ञानस्य स्वात्मैव, स्वसंवेदनरूपत्वादिति । तथा तैरपि बुद्धो जिनत्वेनाभ्युपगम्यते; तदुक्तम् - शौद्धोदनिर्दशबलो बुद्धः शाक्यस्तथागतः सुगतः । मारजिदद्वयवादी समन्तभद्रो जिनश्च सिद्धार्थः ॥' इति । (प्र० .... जिनश्च तुल्यार्थाः) २७. जिणाणं जावयाणं - (जिन और जिनबनाने वालों के प्रति) कल्पित अविद्या के प्ररूपक तत्त्वान्तवादी का मत : अब 'जिणाणं जावयाणं' पद की व्याख्या । ऐसे भी परमात्मा वस्तुगत्या अ-जिन आदि ही होते हैं - ऐसा कल्पित अविद्या को मानने वाले 'तत्त्वान्तवादी को इष्ट है; क्यों कि उसके शास्त्र का वचन है कि 'भ्रान्तिमात्रम् असदविद्या' स्वच्छ निराकार संवेदन को छोड़कर और सभी संवेदन एक भ्रान्तिमात्र है, एकान्ततः असत् अविद्या के रूपक हैं। इसलिए परमात्मा अब अजिन से जिन यानी रागद्वेष को जितने वाले एवं अतीर्ण से तीर्ण - तैरने वाले इत्यादि हुएँ, ऐसा नहीं बन सकता। जब तर्क के पथ पर एक स्वच्छ निराकार संवेदन मात्र ही. सत् सिद्ध होता है, वस्तुस्थिति से तत्त्व है, तब राग - द्वेषादि असत् फलित होता है, भ्रान्ति मात्र है, तो उनका जय वगैरह भी अवस्तु सिद्ध होता है। इसी प्रकार परमात्मा कभी जिन इत्यादि सिद्ध नहीं हो सकते हैं। 'तत्त्वान्त' का अर्थ : माध्यमिक का यह मत :- तत्त्वान्त यह तत्त्व की निष्ठा यानी चरम सीमा रूप है; अर्थात् अन्तिम तर्कशुद्ध वास्तव पदार्थ, किन्तु काल्पनिक नहीं । वह कौन ? निराकार स्वच्छ संवेदन । । 'निराकार' यानी किसी विषय के आकार से शून्य ज्ञान; क्यों कि वास्तव में कोई विषय है ही नहीं। 'स्वच्छ' यानी अत्यन्त निर्मल । ऐसा संवेदन यानी ज्ञान यही वास्तव में एक तत्त्व है, - इस प्रकार कहने वाले तत्त्वान्तवादी है। और ये बुद्ध-शिष्यों के चतुर्थ प्रस्थानवर्ती - चौथी शाखा वाले माध्यमिक लोग होने की संभावना हैं; क्यों कि उन को स्वच्छ निराकार संवेदन के अलावा अन्य सभी संवेदन भ्रान्ति रूप, एवं इसी से असत् अवास्तविक कर के अभिप्रेत है। बौद्ध मत की चार शाखाओं के लक्षण इस प्रकार कहे गए हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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