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________________ हो सकता है। लेकिन परमात्मा को मुक्त न मानना यह तो एक प्रकार का साहस होगा ! तो शायद कहेंगे, 'हां, उनका संसार क्षीण हो गया है,' तब तो जन्म लेना यह बिलकुल असंगत हो जाता है; क्यों कि जन्म पाने के कोई कारण उनके पास रहते नहीं हैं। और अगर बिना कारणसामग्री भी जन्म की बात कहेंगे तो ऐसा निर्हेतुक जन्म सदा ही पाते रहेंगे! नहीं, कहेंगे कि 'तीर्थ का पराभव यह जन्म में हेतु है, तीर्थपराभव हो तभी जन्म लेते हैं', तो यह भी ठीक नहीं, क्यों कि उनको अविद्या न होने से जन्मप्राप्ति असंभवित ही है। संसार में जन्म और अविद्या का निश्चित कार्यकारणभाव है, इससे कारणभूत अविद्या के बिना कार्य जन्म कैसे हो ? अगर कहिये अविद्या उनमें विद्यमान है, तो वे छद्मस्थ सिद्ध होंगे ! और ऐसी स्थिति में उन्हें केवलज्ञान या मोक्ष कहां से हो सकता है ? यह विचारणीय है। प्र० - संसार से सभी भव्यों का उच्छेद क्यों नहीं यदि भव्यजीव छद्म का संपूर्ण नाश कर सकते हैं, और मोक्ष पा सकते हैं? तो मोक्ष में से संसार में वापस लौटने वाले आजीविक मतमान्य गोशालक आदि की तरह वे भी वापस संसार में नहीं लौट सकेंगे। फिर संसार समस्त भव्यों से शून्य क्यों न हो? उ० - ऐसा असत् आलम्बन मत ग्रहण करना, कारण कि संसार में भव्य जीव इतने अनन्तानन्त है कि समस्त भव्य जीवों का सार से उच्छेद यानी निकल जाना यह असिद्ध है। ऐसे अनतानन्त का मतलब ही यह है कि उच्छेद कभी न हो अर्थात् वह अनुच्छेद स्वरूप हो ऐसा अनन्तानन्त। सर्वभव्योच्छेद मानने में आपत्ति :- सकल भव्यों का उच्छेद कभी नहीं होता है ऐसा अगर आप नहीं स्वीकार करते हैं तो आपसे यह प्रश्न है कि जैसे आप को अभिप्रेत परमात्मा पुनः संसार में आते हैं और वे औपचारिक संसारी बनते हैं; इस प्रकार आज के समस्त भव्य जीव भी संसार में पुनरागमन किये हुए औपचारिक संसारी है वैसा क्यों न माना जाए? आप शायद पूछेगे कि 'सभी का मोक्ष कहां हुआ है कि पुनरागमन का प्रश्न ही उठे?' लेकिन देखिए, काल अनादि है अर्थात् इसका प्रारम्भ नहीं है, तो अनादि काल से मुक्तिगमन चालू है इतने विराट अनवधि काल में तो आप के मत से अनन्तानन्त यह उच्छेदयोग्य होने पर सबों का मोक्ष हुआ होना चाहिए। पीछे पुनरागमन और औपचारिक संसारी मानने को आपत्ति क्यों न उपस्थित हो? और ख्याल रखिए कि इष्टापत्ति नहीं कर सकते है क्यों कि वह अनिष्ट है; कारण यह है कि वीतराग नहीं ऐसे वर्तमान संसारी भव्य जीव तो अविद्या में फँसे हुए कई दुष्टता वाले और दुःखग्रस्त हैं, वे कैसे औपचारिक संसारी माने जाएँ। औपचारिक संसारी में तो केवल तीर्थनाश के प्रतिकार के अलावा विषयवासना, हिंसा - जूठ - बदमासी वगैरह कुछ भी न हो सके न? तो विद्यमान भव्य जीवों को वैसे नहीं किन्तु वास्तविक संसारी मानना होगा, और वे यदि अतीत अनन्त काल में भी मोक्ष नहीं पाएँ तो फलतः यही प्राप्त होता है कि भव्य इतने अनन्तानन्त है कि उन समस्त का संसार से कभी उच्छेद न हो सके। आज तक व्यतीत हुए अपरिमीत अगण्य काल में अगर सर्व भव्यों की मुक्ति नहीं हुई है, तो अब से आगे जितना भी काल जाएगा वह तो परिमित, गिनती वाला ही होगा, उसमें सर्व भव्यों की मुक्ति कैसे संभवित हो सके ? इस प्रकार २६वे 'वियट्टछउमाणं' पद की व्याख्या हुई। इस रीति से अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन धरने वाले होने से और छद्मशून्य होने के कारण वे अर्हद् भगवान स्तोतव्य रूप हैं, इसलिए यह ७वीं स्तोतव्यसंपदा की ही कारणयुक्त स्वरूपसंपदा हुई। १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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