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बन्धहेतूनां ज्ञानप्रत्यनीकान्तरायोपघातादीनां, च विशेषहेतूनां, प्रतिपक्षस्य = विरोधिनः सम्यग्दर्शनादेर्यानबहु - मानादेश्च सेवनया = अभ्यासेन । प्रयोगोऽत्र, यद् यस्य कारणेन सह विरुध्यते तत् तद्विरुध्यमानसेवने क्षीयते, यथा रोमोद्भुषणादिकारणेन शीतेन विरुध्यमानस्याग्नेरासेवने रोमोझ्षणादिर्विकारः, विरुध्यते चावरणहेतुभि - मिथ्यादर्शनादिभिः सह सम्यग्दर्शनादिगुणकलाप इति कारणविरुद्धोपलब्धिः । नन्वतीन्द्रियत्वादावरणक्षयस्य कथं तेन हेतोः प्रतिबन्धसिद्धिरित्याशङ्क्याह 'तत्तानवोपलब्धेः', तस्य = आवरणस्य, तानवं = तुच्छभावो देशक्षयलक्षणः प्रकृतयैव (प्र० ....प्रत्ययेन) प्रतिपक्षसेवनया, तस्योपलब्धेः । स्वानुभवादिसिद्धज्ञानादिवृद्धयन्यथानुपपत्तेः प्रतिबन्धसिद्धिः । न च वक्तव्यं 'प्रतिपक्षसेवनया तानवमात्रोपलब्धेः कथं सर्वावरणक्षयनिश्चय इति?' यतो ये यतो देशतः क्षीयमाणा दृश्यन्ते ते ततः प्रकृष्टावस्थात् संभवत्सर्वक्षया अपि, चिकित्सा-समीरणादिभ्य इव रोगजलधरादय इति । एवं च जीवाविभागीभूतस्यापि चिकित्सातो रोगस्येवावरणस्य प्रतिपक्षसेवनया क्षयोऽदुष्ट इति यत्किञ्चिदेतत् यदुतावरणक्षय एव दुरुपपाद इति । अथ प्रकृतसिद्धिमाह 'तत्क्षये च' = आवरणक्षये च, 'सर्वज्ञानं' = सर्वज्ञेयावबोधः । कुत इत्याह 'तत्स्वभावत्वेन', स्वभावो ह्यसौ जीवस्य यदावरणक्षये सर्वज्ञानम् । एतदेव भावयति 'दृश्यते च' = प्रतीयते चानुभवानुमानादिभिः, 'आवरण-हानिसमुत्थो' = निद्राद्यावरणक्षयविशेषप्रभवो, 'ज्ञानातिशयो' = ज्ञानप्रकर्षः ।
सामान्य में अन्तर्भूत नहीं किन्तु सामान्य से भिन्न मानते हैं। इसलिए मात्र सामान्य जानने पर सर्वज्ञता नहीं बन सकती। वह तो समस्त ज्ञानावरणादि घाती कर्मों के क्षय होने पर जब सभी विशेष अलग रूप से ज्ञात हो, तभी संपन्न होती है। ऐसी सर्वज्ञता सर्वनयसंमत मुख्य यानी प्रगट वास्तव सर्वज्ञस्वभाव है।
___ ज्ञान क्रिया दो मिल कर क्यों मोक्षमार्ग :- तो समस्त सामान्य विशेषों के ज्ञानवाली सर्वज्ञता में जिन समस्त नयों की संमति है उनमें से कोई नय तो ज्ञान से मुक्ति मानता है, तो कोई क्रिया से मुक्ति मानता है। श्रद्धा, तप, वैराग्य, परमात्मभक्ति, वगैरह मुक्ति-साधन भी ज्ञान-क्रिया में समाविष्ट हो जाते हैं। अतः सर्व नयों के साधक अभिप्राय संमिलित कर देखा जाए तो यह सिद्ध होता है कि ज्ञान और क्रिया दोनों के एक साथ मिलने पर ही मोक्षसाधना संपन्न हो सकती है।
तात्पर्य, इन दोनों के द्वारा जब समस्त ज्ञानावरण नष्ट होते हैं, और आत्मा का पूर्ण ज्ञान-स्वभाव प्रगट हो जाता है, तब वह ज्ञान विश्व के समस्त सामान्य एवं समस्त विशेषों का ग्रहण करे यह युक्तियुक्त है। युक्ति यह कि आत्मा के ज्ञानस्वभाव से जब सत्ता यानी वस्तुका सत्पन तो गृहीत होता ही है और उससे व्याप्त है सारा विश्व एवं इनके समस्त विशेष, तो वे निरावरण दशा में क्यों सबके सब गृहीत न हों । इससे सर्वज्ञान-स्वभावता सिद्ध होती है। सर्वदर्शन-स्वभावता तो सामान्य के बोध से नितान्त सिद्ध है, इसलिए इसकी सिद्धि के हेतु कोशिश नहीं की जाती है। यहां तक सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता स्वरूप विशेषण की सिद्धि हुई।
'निरावरणत्व' रूप विशेष्य की सिद्धि :- अब 'सर्वज्ञत्व सहित निरावरणत्व' रूप दिए गए हेतु में जो 'निरावरणत्व' रूप विशेष्य है उसकी सिद्धि की जाती है। निरावरणत्व, यानी समस्त ज्ञानावरणादि घाती कर्मों का अभाव, उन कर्मों का निर्मूल नाश होने से होता हैं।
प्र० - आवरण कर्म तो आत्मा के साथ एक रूप हो गये हैं तो उनका मूलतः नाश कैसे हो सके ? उ० - जिन कारणों से कर्मों का बन्ध अर्थात् आत्मा के साथ एकरूप संबन्ध हो गया है, उनसे
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