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प्रतिकूल उपायों के अभ्यास से कर्मनाश होना युक्तियुक्त है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का संबन्ध सामान्य एवं विशेष दो प्रकार के कारणों से होता हैं । इनमें सामान्य कारण हैं मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, योग, एवं प्रमाद। विशेष कारण हैं ज्ञानादिका प्रद्वेष - विरोध - अन्तराय - नाश इत्यादि; ज्ञानावरणादि प्रत्येक के व्यक्तिशः वे कारण इस प्रकार हैं :कर्म
कर्मबन्ध - हेतु ज्ञानावरण
ज्ञान - ज्ञानी - ज्ञानसाधनों का प्रद्वेष, इनकार,
विरोध. इर्षा, अन्तराय. आसातना या नाश . दर्शनावरण
दर्शन - दर्शनी - दर्शनसाधनोंका प्रद्वेष, इनकार,
विरोध, इर्षा, अन्तराय, आशातना या नाश अशाता वेदनीय स्व-पर को पीडा शोक संताप-रुदन-प्रहार-विलापादि करना - कराना। शाता वेदनीय जीवदया, - अर्हत् साधु-श्रावक-भक्ति, दान, सराग संयम, व्रत, भोगनिरोध,
तप आदि कष्ट, क्षमा, शौचादि । मिथ्यात्व मोहनीय सर्वज्ञ, सर्वज्ञशास्त्र-चतुर्विध संघ,-साधुश्रावक-धर्म-देवता-जिनोक्ततत्त्व
की निंदादि और मिथ्यादेव-गुरु, धर्म-तत्त्वादि की रुचि उपासना प्रशंसादि चारित्र मोह तीव्र क्रोधादि कषायवश प्रादुर्भूत आत्मपरिणाम; एवं चारित्र और साधु की|
निन्दा - विघ्नादि बहुजीवनाश के हेतुभूत संग्राम, कीटादिसंहारक उद्योग आदि महाआरम्भ, महापरिग्रह, रौद्रध्यान, मांसभक्षणादि ।
गूढ हृदय, मायाप्रपंच, शल्य, सदाचारहीनता, अविरति आदि। मनुष्यायु...... अल्पारम्भ-परिग्रह, निःस्वार्थ नम्रता - ऋजुतादिमध्यमगुण, दानरुचि आदि ।
सराग संयम, व्रत, अशुभ प्रवृत्ति का निरोध, आहारादि निरोध, तप, कष्ट आदि । अशुभ नामकर्म... मन-वचन-काया की वक्र प्रवृत्ति, विसंवादन (सच्चे को झूठा मनाना
इत्यादि) शुभ नामकर्म... मन-वचन-काया की ऋजु प्रवृत्ति, संवादन नीचगोत्र...
परनिन्दा, स्वप्रशंसा, मद, परगुण-स्वदोष का आच्छादन, स्वकीय असद्
गुणका कथन, धर्मपुरुष-धर्म-तत्वादि की जुगुप्सा - मजाक - इत्यादि । ऊंचगोत्र...
परगुण-प्रशंसा, स्वनिन्दा, स्वगुण एवं परदोष का आच्छादन, नम्रवृत्ति,
निरभिमान । अन्तराय
औरों को दान-लाभ-भोगादि करने में विघ्न करना, जिनपूजा में अन्तराय करना, हिंसादिपरायणता, शक्य धर्मवीर्य कार्यान्वित न करना।
नरकायु.....
तिर्यंचायु......
देवायु......
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