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________________ (ल० - निखिलावरणक्षयसिद्धिः- ) निरावरणत्वं चावरणक्षयात्, क्षयश्च प्रतिपक्षसेवनया तत्तानवोपलब्धेः, तत्क्षये च सर्वज्ञानं, तत्स्वभावत्वेन । दृश्यते चावरणहानिसमुत्थो ज्ञानातिशयः ।। (पं० - ) इत्थं विशेषणसिद्धिमभिधाय विशेष्यसिद्ध्यर्थमाह 'निरावरणत्वं च' प्राग् हेतुतयोपन्यस्तम् 'आवरणक्षयाद्', आवरणस्य = ज्ञानावरणादेः, क्षयात् = निर्मूलप्रलयात् । ननु जीवाविभागीभूतस्यावरणस्य क्षय एव दुरुपपादः, इत्याशक्याह क्षयश्च' उक्तरूपः, 'प्रतिपक्षसेवनया' मिथ्यादर्शनादीनां सामान्यरूप से ज्ञान होता है। ज्ञान आत्मा का सहज स्वभाव है, किन्तु आगन्तुक गुण नहीं । अगर वैसा स्वभाव न हो तो आत्मा और जड में कोई फर्क नहीं रहता, क्यों कि जड भी तादृश स्वभाव से शून्य है। ज्ञान आत्मगुण होने से फर्क तो पड सकता है लेकिन कारण मिलने पर आत्मा में ही ज्ञान दिखाई पडे और जड में नहीं इसका क्या कारण? कहना होगा कि ज्ञान आत्मा का ही स्वभाव होने से कारण सामग्री के सहकार वश आत्मा में ही दिखाई पडे यह युक्तियुक्त है। हां, इस स्वभाव पर आवरण लग गये हैं अतः आवरण ज्यों ज्यों नष्ट हो, त्यों त्यों ज्ञान प्रगट होता है। जब यह देखिए कि, ज्ञान की प्रकाश सीमा कहां तक? दृष्टान्त देखिये, - एक घट का 'यह सत् है' - इस प्रकार सद्रूप से ज्ञान हुआ। अब विश्व के समस्त पदार्थों का एक रूप से सङ्ग्रह करने वाली अविभाजित दृष्टि से देखा जाए तो सारा विश्व एकमात्र सद्प है; सत् से कोई भी भिन्न नही है। इसलिए एक घट को सद्रूप से जानने पर समस्त विश्व को सद्रूप से जान लिया; अतः सद्प से ज्ञात होने में विश्वका कोई पदार्थ नहीं बचा । धर्मास्तिकायादि सकल ज्ञेय पदार्थ ज्ञात हो गए; क्यों कि वे सत् है। अगर कोई सत् नहीं, तो वह ज्ञेय नहीं, जैसे आकाशपुष्प, शशश्रृङ्गादि । जो सत् है वह सद्रूप से ज्ञात होता ही है। यह सद्पता यानी सत्ता महासामान्य है, क्यों कि इससे कोई भी पदार्थ अवेष्टित नहीं है। संग्रह-व्यवहार को संमत सर्वज्ञता : प्र० - ठीक है समस्त ज्ञेयों को सद्प से तो जान लिया, किन्तु जहां तक उन प्रत्येक के निखिल विशेष धर्मों का ज्ञान न हुआ वहां तक सर्वबोध यानी सर्वज्ञता कहां सिद्ध हुई ? उ० - मात्र सामान्य ही नहीं, किन्तु विशेष भी ज्ञेय हैं, अर्थात् ज्ञानके विषय होने के कारण ज्ञान से ज्ञात हो सके वैसे है; और वे दर्शन के बिना अर्थात् सामान्य धर्म के साक्षात्कार के बिना ज्ञात नहीं हो सकते हैं। कारण यह है कि विशेष धर्म सामान्य रूप का अतिक्रमण नहीं करते हैं, सामान्य बिना नहीं हो सकता हैं। उदाहरणार्थ, मनुष्यत्व यह विशेष धर्म है और जीवत्व यह सामान्य धर्म, मनुष्यत्व जीवत्व को छोडकर नहीं रह सकता है,जीवत्व को आलिङ्गित हो कर ही रहता है। यो नींवत्व यह, सामान्य रूप जो पेड़पन इस के साथ जुडा हुआ ही रहता है। इस प्रकार सभी विशेष धर्म महासामान्य अर्थात् वस्तु मात्र में रहनेवाली सत्ता (सद्पता) से अन्तर्व्याप्त ही होते हैं। जहां सद्रूपता नहीं वहां कोई विशेष धर्म नहीं; अतः सद्रूपता से अलग कोई विशेष नहीं है। तो दर्शन-उपयोग से सामान्य मात्र का बोध होने पर भी विशेष सामान्य में अन्तःप्रविष्ट होने के कारण, सङ्ग्रहनय के अभिप्रायानुसार विशेषों का बोध सामान्य बोध में आ ही जाता है। इस दृष्टि से ज्ञानावरण कर्मों से आच्छादित आत्मा भी सत् सामान्य रूप से निखिल विश्व को जान लेता हुआ सदा सर्वज्ञ कहा जाए ! किन्तु विशेषवादी नैगम या व्यवहार नय के मत से तो केवल सामान्य बोध में सभी विशेष ज्ञात नहीं होते है, क्योंकि वे नये विशेषोंको १८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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