________________
(ल० - सर्वज्ञानदर्शनसिद्धि :-) सर्वज्ञस्वभावत्वं च सामान्येन सर्वावबोधसिद्धेः, विशेषाणामपि ज्ञेयत्वेन ज्ञानगम्यत्वात् । न चैते साक्षात्कारमन्तरेण गम्यन्ते, सामान्यरूपानतिक्रमात् ।
(पं० - ) हेतुविशेषणसिद्धयर्थमाह 'सर्वज्ञस्वभावत्वं च' हेतुविशेषणतयोपन्यस्तं, 'सामान्येन' महा सामान्यनाम्ना सत्तालक्षणेन, 'सर्वावबोधसिद्धेः', सर्वेषां = धर्मास्तिकायादिज्ञेयानाम्, अवबोधसिद्धेः = परिच्छेदसद्भावात्, एकस्मिन्नपि घटदौ सद्रूपे परिछिन्ने तद्रूपानतिक्रमात् शुद्धसङ्ग्रहनयाभिप्रायेण सर्व्वसतां परिच्छेदः सिध्यति । आह 'सत्तामात्रपरिच्छेदेऽपि विशेषाणामनवबोधात् कथं सर्वावबोधसिद्धि' रित्याशङ्क्याह 'विशेषाणामपि' न केवलं सामान्यस्य, ज्ञेयत्वेन' = ज्ञानविषयत्वेन, 'ज्ञानगम्यत्वात्' = ज्ञानेन अवबोधरूपेणावबोधनीयरूपत्वात् । यद्येवं ततः किमित्याह 'न च' = नैव, 'एते' = विशेषाः, 'साक्षात्कार' = दर्शनोपयोगम्, 'अन्तरेण' = विना, तेनासाक्षात्कृता इत्यर्थः, 'गम्यन्ते' = बुध्यन्ते । कथमित्याह 'सामान्यरूपानतिक्रमात्', सामान्यरूपातिक्रमे ह्यसद्रूपतया खरविषाणादिवदसन्त एव विशेषाः स्युरिति । इदमुक्तं भवति, - दर्शनोपयोगेन सामान्यमात्रावबोधेऽपि तत्स्वरूपानतिक्रमात् सङ्ग्रहनयाभिप्रायेण विशेषाणामपि ग्रहणाच्छद्मस्थोऽपि सर्वदा सर्वज्ञस्वभावः स्यात्; घातिकर्मक्षये तु सर्वनयसंमत्या निरुपचरितैव सर्वज्ञस्वभावता; ज्ञानक्रियायोगपद्यस्यैव मोक्षमार्गतेति । सर्वदर्शनस्वभावता तु सामान्यावबोधत एव सिद्धेति न तत्सिद्धये यत्नः कृत इति । प्रथम समय सर्वज्ञता और दूसरे समय सर्वदर्शिता, फिर तीसरे समय सर्वज्ञता, चौथे समय सर्वदर्शिता, - इस प्रकार बतलाया गया है; तो एकेक समय का अंतर पडने से सार्वदिक् यानी एकसाथ हमेश की कहां रही? इस शङ्का का समाधान यह है कि अन्य दष्टि के अभिप्राय से सार्वदिक कहा गया है। दो समयों का स्थल एक काल ले कर देखा जाय तो उस दृष्टि से वैसे हरएक काल में सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता कह सकते हैं । अथवा, सर्वज्ञता के समय में समस्त सामान्य धर्म भी ज्ञात तो हैं ही, लेकिन गौण रूप से । तो गौण रूप से भी वे ज्ञात होने की दृष्टि से वहां सर्वदर्शिता समाविष्ट होती है ऐसा कह सकते हैं। वहां कोई घाती कर्म रूप आवरण भी न होने से अप्रतिहत-वरज्ञानदर्शन है।
सर्वज्ञतास्वभाव एवं निरावरणता दोनों की क्या जरूर?:- इस बात को निषेधमुख से देखें तो कहा जाए कि सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता का स्वभाव एवं निरावरणता, इन दो में से एक के भी अभाव होने पर अप्रतिहत वर ज्ञानदर्शन के धारक नहीं हो सकती है। अन्यथा प्रश्न होगा कि धर्मास्तिकायादि जड द्रव्यों में निरावरणता तो है, यानी घाती कर्मों का अभाव तो है, फिर अप्रतिहतवरज्ञानदर्शन क्यों नहि है? कहना होगा कि उसके लिए जरूरी तो दूसरा कारण सर्वज्ञसर्वदर्शिता का स्वभाव, यह उनमें न होने से वह नहीं है। इसी प्रकार एकेन्द्रियादि जीव में जीवत्व होने के नाते सर्वज्ञ-सर्वदर्शिता का स्वभाव तो है, किन्तु उनमें घाती कर्मों के आवरण लगे होने से उससे प्राप्त निरावरणता का अभाव होने के कारण वहां भी अप्रतिहत-वर-ज्ञानदर्शनधरता नहीं है।
सर्वज्ञता-स्वभाव का बीज है ज्ञानकी सहजता :- अरहंत प्रभु में अप्रतिहत-ज्ञानदर्शनधरता की सिद्धि करने के लिए जो हेतुरूप से 'सर्वज्ञतास्वभावयुक्त निरावरणता' का उल्लेख किया, उसमें विशेषण है 'सर्वज्ञतास्वभाव' और विशेष्य है 'निरावरणता' । अब देखिए कि ये दो पहले सिद्ध हो तो वे अप्रतिहत-वर - ज्ञानदर्शनयुक्तता सिद्ध कर सकते हैं। इसलिए अब उन दोनों की सिद्धि कैसे हो, यह बतलाते हैं। प्रभु में सर्वज्ञता का स्वभाव इसलिए सिद्ध है कि उनमें धर्मास्तिकायादि समस्त पदार्थों का सत्ता (सद्पता) नामक महासामान्य
१८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org