SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्युपासयामासुः, भगवांश्च सनीरनीरद्ध इव भव्यजन्तु सन्तानशिखिमण्डलोल्लासनस्वभावो भासुराभिनवाञ्जनपुञ्जसङ्काशकायः कषायग्रीष्मसमयसंतप्तप्राणिसंतापापनोददक्षो विक्षिप्तान्धकारभामण्डलतडिल्लतालङ्कृतः स्फुरद्धर्मचक्रकान्तिकलापोत्पादितनभोभूषणाऽऽखण्डलकोदण्डाडम्बरः सौधर्मेशानसुरपतिपाणिपल्लवप्रेर्यमाणधवलचामरोपनिपातप्राप्तबलाकापङ्क्तिप्रभवशोभः सकलसत्त्वसाधारणाभिः सद्धर्मदेशनानीरधाराभिः स्वस्थीचकार निःशेषप्राणीहृदयभूप्रदेशानिति । ततः प्रवृत्ते तीर्थेऽन्यदा भानुमानिव भगवान् प्रबोधयन् भव्यपद्माकरान् दक्षिणापथमुखमण्डनं जगाम भृगुकच्छा (प्र०.....भरुकच्छा) भिधाननगरमिति; समवससार च तत्र पूर्वोत्तरदिग्भागभाजि कोरिण्टकनामन्युद्याने। अत्रान्तरे निशम्य निजपरिजनाद् जिनागमनम्, आनन्दनिर्भरमानस: समारुह्य जात्यतुरङ्गममनुगम्यमानो मनुजव्रजेनाजगाम जगद्गुरुचरणारविन्दवन्दनाय तन्नगरनायकोजितशत्रुनामा नरपतिः; प्रणिपत्य सकलकमलानिकेतनं जिनपतिपदकमलमुपविष्टो घटितकरकुड्मलो भगवच्चरणमूले; समूह ने स्वर्ग से आकर भगवान से दीक्षा-अवसर का अभिनन्दन किया। (तब से लेकर प्रभु के द्वारा वार्षिक दान दिया गया।) तत्पश्चात् तत्काल समस्त देव-पर्षद् यहां संमिलित हो कर उन्होंने भगवान का दीक्षा-अभिषेक एवं जुलूस के रूप में भारी पूजा-विधि की; और भगवानने कारागार समान संसार से निकालने वाली सत्पुरुषों से जन्म पाई हुई प्रव्रज्या यानी साधुदीक्षा गृहीत की। इसके बाद उन्होंने पवन की तरह अप्रतिबद्ध रूप से विहार कर, अपने चरणकमल की रज के स्पर्श से पृथ्वी को पवित्र करते करते कुछ काल छद्मस्थ यानी ज्ञानावरणादि कर्मो से आवृत रूप में पसार किया, तदनंतर उन्होंने शुक्लध्यान की तीक्ष्ण कुद्दालधार लगा कर दुःखद मोह-वृक्ष के मूलों के समूह का उच्छेद कर दिया, और (वीतराग हो ज्ञानावरणादि घाती कर्मो का नाश करके) समस्त काल में होने वाले पदार्थ एवं प्रसङ्गो के स्वरूपप्रकाशन में अत्यन्त निपुण ऐसा केवलज्ञान (सर्वज्ञपन) उत्पन्न कर लिया। तीर्थंकर भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति के प्रभाव से सर्व इन्द्रों के सिंहासन चलायमान हुए; इससे वे अपने अवधिज्ञान द्वारा प्रभु को ज्ञानोत्पत्ति हुई ऐसा जान कर अत्यन्त भक्तिवश आये; और उन्होंने देशना भूमि के लिए रजत-सुवर्ण-रत्न के तीन किलोंके रूप में समवसरण की रचना, इत्यादि रूप में भगवान का रमणीय पूजासत्कार किया। देवता वहां अपने स्तर के अनुसार योग्य स्थान में बैठ कर भगवान की उपासना करने लगे। भगवान भी जलपूर्ण मेघ के समान हो सद्धर्म की देशना स्वरूप बारिस बरसाने लगे। मेघ के समान इसलिए कि भगवान भव्य जीव की पंक्ति स्वरूप मयूरमंडल को उल्लसित करने के स्वभाव वाले हैं; भास्वर नूतन अञ्जन के पुञ्ज संमान श्याम शरीर वाले हैं; कषाय स्वरूप ग्रीष्मसमय से संतप्त प्राणियों के संताप को दूर करने में कुशल हैं; अन्धकार को हटाने वाले भामण्डल रूप बिजली की रेखा से अलङ्कृत हैं; प्रभु के स्फुरायमान धर्मचक्र की क्रान्ति के पुञ्ज के आकाश में इन्द्रधनुष्य की शोभा पैदा होती है; सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र के पल्लवतुल्य हाथों से ढ़ले जाते श्वेत चामर की हलन चलन से, सफेद बगुले की पंक्ति के समान जो शोभा उठती है, वैसी शोभा मेघ की भांति प्रभु को प्राप्त होती है। ऐसे मुनिसुव्रत भगवान की धर्मदेशना बारिस के समान सकल जीव-साधारण बरसती थी, और उसकी धारा समस्त प्राणियों के हृदय रूप भूमिभाग को स्वस्थ कर रही थी। उस देशना से वहां तीर्थ की शासन की स्थापना हुई, गणधर महर्षि आदि चतुर्विध संघ स्थापित हुआ। एक समय चलते हुए भगवान भव्य जीव स्वरूप कमलों को सूर्य की भांति प्रतिबोध करते करते दक्षिणापथ देश के मुखमंडन समान भृगुकच्छ नाम के नगर में पधारे; और वहां ईशान कोण में रहे हुए कोरिण्टक नामक उद्यान में स्थिरता की। उस वक्त नगर के स्वामी राजा जितशत्रु ने अपने परिजन से सुना कि जिनेन्द्र भगवान का आगमन हुआ है। ईससे उसका चित्त आनन्द में मग्न हो गया और 5 १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy