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(ल०-श्रेष्ठधर्मप्राप्तिहेतवः) एवं च तदुत्तमावाप्तयश्च भगवन्तः प्रधानक्षायिकधर्मावाप्त्या, (१) तीर्थकरत्वात् प्रधानोऽयं भगवतां; तथा (२) परार्थसंपादनेन सत्त्वार्थकरणशीलतया; एवं (३) हीनेऽपि प्रवृत्तेः, अश्वबोधाय गमनाऽऽकर्णनात्; तथा (४) तथाभव्यत्वयोगात्, अत्युदारमेतदेतेषाम् । २ ।
(पं0-) अश्वबोधाय गमनाऽऽकर्णनादिति, अश्वस्य तुरङ्गमस्य, बोधाय सम्बोधाय, भगवतः श्रीमतो मुनिसुव्रतस्वामिनो भृगुकच्छे गमनश्रवणात् । तथाहि,
(अश्वबोधकथा :-) किल भगवान् भुवनजनानन्दनो द्विषदुःसहप्रतापपरिभूतसमस्तामित्रसुमित्राभिधानभूपालकुलकमलखण्डमण्डनाऽमलराजहंसो भुवनत्रयाभिनन्दितपद्मापदपद्मावतीदेवीदिव्योदरशुक्तिमुक्ताफलाकारः श्रीमुनिसुव्रततीर्थनाथो मगधमण्डलमण्डनराजगृहपुरपरिपालितप्राज्यराज्य: सारस्वतादिवृन्दारकवृन्दाभिनन्दितदीक्षावसरस्तत्कालमिलितसमस्तवासवविसरविरचितोदारपूजोपचारश्चारकाकारसंसारनिस्सरणसज्जां (प्र०... निःसारसज्यां) प्रव्रज्यां जग्राह, तदनु पवनवदप्रतिबद्धतया निजचरण (प्र०....चलन) कमलपांशुपातपूतं भूतलं कुर्वन् कियन्तमपि कालं छद्मस्थतया विहत्य निशातशुक्लध्यानकुठारधाराव्यापारविलूनदूरन्तमोहतरुमूलजालः सकलकालभाविभावस्वभावावभासनपटिष्ठं केवलज्ञानमुत्पादयामास । समुत्पन्नज्ञानं च भगवन्तमासनचलनानन्तरं विज्ञाय भक्तिभरनिर्भरा निखिलसुरपतयो विहितसमवसरणादिरमणीयसपर्याः पर्यायेण यथास्थानमुपविश्य भगवन्तं
होते हैं । तीर्थंकर भगवान का धर्म औरों की अपेक्षा प्रधान होता हैं । क्यों कि वे वरबोधि-सम्यग्दर्शनयुक्त एवं स्वयंबुद्ध हो, अप्रमत्त चारित्रधर्म वाले होते हैं । तथा (२) औरों के अर्थ (प्रयोजन) का संपादन करने से वे उत्तमधर्म प्राप्ति वाले कहे जाते हैं। केवल स्वार्थसिद्धि नहीं किन्तु अन्य भव्य जीवों को भी हित रूप धर्मप्रयोजन संपादित करने वाले वे होते हैं। यह स्वयं उत्तमधर्मप्राप्ति के सिवा नहीं हो सकता है। तथा (३) हीन प्राणी के प्रति भी धर्मोपकार में प्रवृत्ति करने से सिद्ध होता है कि वे उत्तम धर्मप्राप्ति वाले हैं। उदाहरणार्थ, तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतस्वामी अश्व को प्रतिबोध करने के लिए गए,-ऐसा शास्त्र से सुना जाता है। (इसकी कथा आगे कहते हैं। ) बिना धर्मकी उत्तम प्राप्ति, यह कैसे हो सके ? तथा, (४) तथाभव्यत्व के योग से भगवान उत्तम धर्म की प्राप्ति वाले होते हैं। तीर्थंकर भगवान में अनादि काल से समस्त भव्य जीवों की अपेक्षा अत्यन्त श्रेष्ठ ऐसा विशिष्ट कोटि का भव्यत्व होता है. जिसकी वजह जात्य रत्न की भांति वे उत्तम वरबोधि-सम्यग्दर्शनादि धर्म से लेकर प्रधान क्षायिक धर्म प्राप्त करते हैं। इस प्रकार धर्म की उत्तम प्राप्ति करने से भगवान धर्म के नायक बने हैं। इससे यह भी सूचिंत होता है की धर्म की उत्तम प्राप्ति करनी हो तो परार्थ-संपादन एवं हीन प्राणी के प्रति भी धर्मोपकार इत्यादि जरूरी है। अब अश्व-बोध की कथा :
___ -: अश्वबोध-कथा :जगत के जीवों को आनन्द देने वाले तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतस्वामी शत्रुओंको दुःसह ऐसे प्रताप से समस्त शत्रुओं का पराभव करने वाले (पिता) सुमित्र नामके भूपति के पुत्र थे, और उनके कमलवन समान कुल में अलंकारभूत निर्मल राजहंस समान थे, एवं त्रिभुवन से अभिनन्दित और लक्ष्मी के स्थानभूत ऐसी (माता) पद्मावती रानी की दिव्य कुक्षी स्वरूप शुक्ति में मोती के समान उत्पन्न हुए थे। उन्हों ने मगध देश के भूषण समान राजगृह नगर में रह कर विशाल राज्य का पालन किया। बाद में सारस्वत आदि लोकान्तिक देवों के
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