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________________ समाकर्णितवान् कर्णामृतभूतां भगवद्देशनाम् । तदनु जाननपि जनबोधनाय विनयपूर्वं प्रणम्य पप्रच्छ परमगुरुं गणधरो, यथा 'भगवन्नमुष्यां मनुष्यामरतिर्यक्कु लसकुलायां (प्र०...विसंकुलायां) पर्षदि कियद्भिर्भव्यजन्तुभिरपूर्वैरभ्युपगतं सम्यक्त्वं, परीत्तः (प्र०.... परीतः) कृतः संसारसागरः; पात्रीकृतो निवृतिसुखानामात्मेति? ततः कुन्दकान्तदन्तदीप्तिभिरुद्द्योतयन्नभोऽङ्गणं जगाद जगन्नाथो, यथा-'सौम्य ! समाकर्णय न केनचित् तुरङ्गरत्नमपहायापरेणेति ।' ततः श्रुत्वा सर्वज्ञवचनमवोचज्जितशत्रुभूपतिः- 'भगवन ! कौतुकाकुलित - (प्र-... कलित) चित्तो जिज्ञासामि तुरगवृत्तान्तमहम् । अन्यच्च - भगवन्नहमस्मिन्नश्वरत्ने समारुह्य चलितस्ते चलननलिनमभिवन्दितुम् । विलोक्य त्रिलोकीतिलकतुल्यं समवसरणमवतीर्णस्तुरङ्गमात् प्रवृत्तः पद्भ्यामेवागन्तुम्, तावत्सकलजन्तुजातचित्तानन्ददायिनी सजलजलदनादगम्भीरां गम्भीरभवपाथोधि(प्र....पयोधि)पोतोपमां समाकर्ण्य भगवद्देशनामानन्दपयःप्लावितपवित्रनेत्रपात्रो निश्चलीकृतकर्णयुगलः समुल्लसितरोमकूपो मुकुलिताक्षः जात्य अश्व पर आरुढ हो मानवगण से अनुसरण कराता हुआ, जगद्गुरु के चरणारविन्द को वन्दना करने के लिए आया। उसने बाह्य-आभ्यन्तर निखिल लक्ष्मी के निवासभूत जिनपति-पदकमल को नमस्कार कर के, हस्तांजलि जोड कर भगवान के चरण समीप अपना स्थान लिया, और कर्णो के लिए अमृत-सी जिनवाणी के सम्यक् श्रवण में मन लगाया। इसके पश्चात् गणधर महषिने स्वयं जानते हुए भी जनता के बोधार्थ परमगुरु परमात्मा से, प्रणाम कर विनयपूर्वक प्रश्न किया ___ 'हे भगवन् ! मनुष्य, देव, और तिर्यञ्च पशुपक्षियों के समूह से व्याप्त इस पर्षदा के भीतर कितने भव्य जीवोंने बिलकुल नवीन सम्यग्दर्शन प्राप्त किया? संसारसागर सीमित कर दिया? और अपनी आत्मा मोक्षसुखों के पात्र बनाई ?' तब, जगनाथ कुन्दपुष्प-सी मनोरम दन्तकिरणों से गगनाङ्गण को दीप्तिमान करते हुए बोले, 'हे सौम्य ! सुन ले कि जात्य अश्वरत्न को छोड कर और किसीने नहीं।' ___बाद में सर्वज्ञ भगवान के वचन का श्रवण कर जितशत्रु राजाने पूछा, 'हे भगवन् ! मेरा चित्त आश्चर्य से व्याकुल हुआ है, और अश्व का वृतान्त जानने के लिए मेरी वाञ्छा है। और भी बात यह है कि हे प्रभो ! मैं इस अश्वरत्न पर आरूढ हो श्रीमद् के चरणकमल में बन्दना करने हेतु चला, बाद में त्रिभुवन के तिलक समान समवसरण दृष्टिपथ में आते ही अश्व के उपर से मैं उतर गया और पैदल ही यहां आने लगा। इतने मैं समस्त जीवराशि के मन को आनन्द देने वाली. सजल बादल के नाद-सी गम्भीर और गहरे संसारसागर को तैर जाने के लिए नाव के तुल्य भगवत् की देशना सुनने पर इस अश्व के नेत्र-पात्र आनन्दाश्रु से प्रक्षालित और पवित्र होने लगे! इसके दो कर्ण स्थिर हो गए ! रोमराजि उल्लसित हो उठी! वह क्षणभर आंख बन्द कर खडा रहा। इसके बाद हे विश्वतारक ! यह अश्व फिर धर्मश्रवण पर अपने श्रोत्रों का लक्ष दे कर समवसरण के तोरण के पास आया, और वहां अपूर्व प्रमोदरस का आस्वाद करते हुए उसने अपने दो जानू भूमि पर स्थापित किये। ऐसा मालूम पडता था कि उसका निखिल क्लेश-मल गलित होता था, और अपने मानस की उज्ज्वल भावना मानों कह रहा था। इस अवस्था में शिर झुका कर आप से वन्दना करता हुआ वह यों ही बैठने लगा । अश्व की ऐसी चेष्टा देख कर मैं आश्चर्य-चकित हुआ। मेरा चित्त कभी न देखा हो, ऐसे विस्मय से भरने लगा, और ऐसे चित्त के साथ मैं यहां श्रीमद् की निश्रा में आया । अब जगद्दयालु से पार्थना है कि आप तो विश्व के मिथ्या ज्ञान को नष्ट करने वाले हैं। अत: आप बताने की कृपा करें कि ये सब क्या हैं ?" १६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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