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(ल० - ) भवत्येवं सोपक्रमकर्म्मनाशः, निरू पक्रमकर्म्मानुबन्धव्यवच्छित्तिः - इत्येवं धर्म्म देशयन्तीति धर्म्मदेशकाः । २१
गौरव बहुमानादि रखा जाए एवं कृतज्ञभाव बना रहें ।
असंपन्न धर्मयोगो में प्रयत्न :- " आगे आगे आत्मविकास बढ़ाने के लिए मात्र चालू धर्मप्रवृत्ति से संतोष मान लेना उचित नहीं, किन्तु अप्राप्त अधिकाधिक धर्मयोगों के लिए प्रयत्न करना भी अत्यावश्यक है 1 धर्मयोगों में प्रवृत्ति यह तो मोक्ष की एक यात्रा है; अत: उसमें प्रगति एवं वेग बढ़ाना चाहिए। इसका एक यह भी कारण है कि धर्मयोगों से साधनाकाल से अतिरिक्त काल में पापप्रवृत्ति बनती तो रहेगी और इससे अशुभ कर्मबंधन भी बढ़ते रहेंगे, तो उनसे बचने के लिए भी धर्मयोगों में नया नया प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे प्रयत्न का मतलब यह है कि चालू धर्मयोगों में भी अधिकाधिक एकाग्रता, भावोल्लास, संभ्रम, सूक्ष्मविधिपालन, इत्यादि करने के लिए भी एवं क्षमा-उपशम- अर्हद्भक्ति आदि बढ़ाने के हेतु भी प्रयत्न करना चाहिए | एवं असंपन्न धर्मयोगप्रयत्न अर्थात् अन्यान्य धर्मयोगों का बाध न हो वैसी धर्मसाधना की जाए ।
उन्मार्गगमन आदि पर लक्षः संभवित स्खलनादि के पूर्व प्रतिकारः भयशरणादि दृष्टान्त :'धर्मयोगों की साधना में यह भी बहुत लक्ष में रहे कि साधना का रथ बीच में स्खलित या खंडित तो नहीं होता है, या मार्ग को छोडकर उन्मार्ग पर तो नहीं चला जाता हैं; अर्थात् विस्रोतसिका तो नहीं होती हैं । हुई हो तो प्रतिपक्षीय धर्मभावना, गुरुशिक्षा, इत्यादि उपायों से उसे हटानी चाहिए। धर्मयोगों की साधना में मोह के उदयवश ऐसे कई प्रलोभन, शैथिल्य, अजागृति, कषायावेश, विषयाकर्षण, इत्यादि उपस्थित होते हैं, कि जो साधक को स्रोत यानी साधना के प्रवाह में से विस्रोत यानी विराधना (स्खलना) के उत्पथ में डाल देते हैं। इसलिए हर समय वह सावधानी रहे कि विस्रोतस् गमन न हो। इतना ही नहीं बल्कि भविष्य में भी कोई विस्रोतसिका न हो पावे इसलिए पहले से प्रतिकार रूप में प्रयत्न रखना आवश्यक है; जैसे कि ब्रह्मचर्य धर्म के पालन में भावी कोई बाधा न हो इसलिए स्त्रीपरिचय, स्त्रीकथा, विलासी वांचन इत्यादि से दूर रहने का यत्न और शुभ भावनाओं का प्रयत्न जरूरी हैं। विस्रोतसिका के प्रतिकार में भय शरणादि उदाहरण दिया जाता है। कहा है, 'शरणं भए उवाओ, रोगे किरिया, विसंमि, मंतो त्ति'; - अर्थात् कोई भय उपस्थित हुआ हो, तो रक्षण के हेतु किसी शक्तिमान की शरण लेना यह उपाय है। कोई व्याधि पेदा हुई हो तो विशेषज्ञ वैद्य की चिकित्सा यह व्याधि मिटाने का उपाय है । एवं कोई विष-प्रयोग हुआ हो तो मन्त्र उसके निवारण का उपाय होता है। इस उदाहरण के अनुसार विस्रोतसिका से बचने हेतु योग्य प्रतिकार किये जाते हैं ।
सोपक्रमकर्मनाश : निरुपक्रमकर्मानुबन्धनाश : - " इस क्रम से अन्तिम विस्रोतसिका के प्रतिकार तक की धर्म-साधना करने पर सोपक्रम कर्मो का तो नाश ही हो जाता है, और निरुपक्रम कर्मो की परंपरा रुक जाती है । सोपक्रम कर्म वे कहे जाते है कि जिन पर उपक्रम यानी प्रबल आघातक निमित्त लगने पर
तूट जाते हैं। यहां शुद्ध धर्मसाधना रूप निमित्त ऐसा होने से सोपक्रम कर्मों का नाश हो जाता है। लेकिन निरुपक्रम कर्म वे हैं जिन्हें प्राय: कोई घातक उपक्रम नष्ट कर ही नहीं सकता; इसलिए वे अवश्य उदय में आते हैं। फिर भी उपर्युक्त धर्मसाधना का यह प्रभाव है कि वह ऐसे निरपक्रम कर्मो की अनुबन्ध शक्ति का नाश कर देता है । यदि धर्मसाधना न हो तो जिन कर्मों के उदय में आत्मा में ऐसा संक्लिष्ट भाव उत्पन्न होता हैं कि इससे पुन: नये कर्म उपार्जित होते हैं, और पुनः उनके उदय में फिर अन्य कर्म उपार्जित होते हैं, इत्यादि, वे कर्म अनुबन्ध वाले कहे जाते हैं। धर्म साधना से कर्मों की इस अनुबन्ध शक्ति का नाश हो जाने से आगे कर्मोपार्जन की परंपरा नहीं चल सकती है।"
इस प्रकार के धर्म का उपदेश अरिहंत परमात्मा करते हैं, इसलिए वे धर्मदेशक हैं ॥ २१ ॥
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