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________________ बिना धर्म देह का पोषण भी कैसे हो सकेगा? इसलिए साधुसेवा अति आवश्यक है; और साधुसेवा भी प्राप्त करके वह निष्फल न जाए और धर्मदेह दुर्बल न बने, - यह ध्यान में रख कर धर्मयोगों का विकास एवं चित्त में धर्मशरण की भावना पोषण करते रहना चाहिए । धर्मयोगो का सातत्य बना रहे, और इनमें प्रणिधान-प्रवृत्तिस्थिरता बार बार अभ्यास, आदर, विधिपालन, इत्यादि बढते रहें - इन सब से धर्मपोषण होता है। प्रवचनमालिन्य-रक्षणः - "जीवन में जिनाज्ञा की अधीनता एवं धर्मशरण की वृत्ति और धर्म का पोषण करते रहने के साथ साथ प्रवचन यानी जिनशासन का मालिन्य से रक्षण करना चाहिए । मालिन्य यानी मलिनता यह- कि लोगों में जैन धर्म की निन्दा हो, जैनसंघ की लघुता हो, जैन आचार अनुष्ठान के प्रति अरुचिद्वेष-तिरस्कारादि प्रगट हो, इत्यादि । इस से रक्षा करनी अर्थात् अपनी धर्मप्रवृत्ति द्वारा भी ऐसी कुछ भी मलिनता न हो, और अन्यों के द्वारा प्रादुर्भूत ऐसी मलिनता का निवारण हो इस प्रकार की सावधानी एवं प्रयत्न अवश्य रखना चाहिए। प्रवचन मालिन्यकी रक्षा का इतना बड़ा महत्त्व है कि इसके लिए कभी कभी जिनाज्ञा के विधिनिषेध के उत्सर्गमार्ग का भी त्याग कर अपवाद-मार्ग का आलंबन किया जाता है। अलबत्त वह भी जिनाज्ञा से बाह्य नहीं है; क्यों कि जिनाज्ञा ने ही प्रवचन-रक्षा पर बहुत जोर दिया है। विधिप्रवृत्ति-आत्मनिरीक्षणः अरिहंत परमात्मा, आगे भी, इस प्रकार धर्मोपदेश करते है कि, "यह धर्मयोगों द्वारा धर्मपोषण एवं प्रवचनमालिन्य-रक्षण उसीसे किया जा सकता है जो धर्म की शास्त्रोक्त विधि से प्रवृत्त होता है। विधि का भङ्ग करने में धर्मयोग की सिद्धि और धर्मदेह का व्यवस्थित पोषण तो नहीं हो सकता, वरन् प्रवचन को मालिन्य लगने का अवकाश रहता है। अतः सर्वत्र बाह्य एवं आभ्यन्तर विधि से प्रवृत्ति करनी चाहिए। विधिपालन पर्वक धर्मयोगों की सिद्धि एवं धर्मपोषण हो रहा है या नहीं, उसका निर्णय करने के लिये यह देखना चाहिए कि अपनी आत्मा में राग-द्वेषादि कम हो रहे हैं या नहीं। इसीलिए सूत्र में जहां रागी-द्वेषी आदि के लक्षण बतलाए गये हैं उसके आधार पर अपनी आत्मा की रागादि-परिणति की जांच करनी आवश्यक है। जैसे कि कहा है, 'पहले संसार निस्तार रूप मोक्ष आदि की शुभ भावना से, सूत्रप्रणेता एवं सूत्र पर पूर्ण श्रद्धा से, तथा विनय बहुमानादि गुणों से हृदय को भावित करना; ततः सूत्रका पाठ लेना, बाद में उस अर्थ के ज्ञाता पुरुष के पास तीर्थ यानी प्रवचन बार बार श्रवण करना। तत्पश्चात् अपनी आत्मा का, दोष संबन्ध में ऐसा सूक्ष्म निरीक्षण करना कि मेरे में कितने राग-द्वेषादि दोष कम हुए, प्रत्येक कितना कम हुआ, और अब भी कौन कौन कितना अवशिष्ट है। तथा वे भी कैसे कैसे निर्मूल हों।' निमित्तों की अपेक्षा :- "विधिपूर्वक जो धर्मप्रवृत्ति करने का कहा, उसमें भी निमित्तों की अपेक्षा रखनी जरुरी हैं । 'निमित्त' कहते हैं, एक तो किसी कार्य करने में इष्ट सिद्ध होगा या अनिष्ट, उसके सूचक शुभाशुभ शब्द शुकन आदि को। दूसरे प्रकार के निमित्त हैं कार्य करने में आवश्यक सहकारी कारण । दोनों प्रकार के निमित्तों की कभी उपेक्षा नहीं किन्तु अपेक्षा रखनी । कहा है, 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' शुभ कार्य बहुत विघ्नभरे होते हैं; अब विघ्न तो अतीन्द्रिय होते हैं, लेकिन अशुभ शुकन आदि ऐसे विघ्नों एवं अनिष्टो का सूचन करते हैं तो उनके पर ध्यान देना, उसका निवारण करना, रुक जाना, इत्यादि आवश्यक है। एवं इष्ट-सिद्धि के सूचक शुभ शुकन आदि की प्रतीक्षा करना, शुकन मिलने पर शुभ कार्य में विलम्ब नहीं करना, यह भी जरुरी है। इस प्रकार, धर्मप्रवृत्ति करने में अपेक्षित साधन-सामग्री स्वरूप निमित्तों पर भी ध्यान देना चाहिए, ता कि उनकी त्रुटिया अल्पता में प्रारम्भ की गई धर्मप्रवृत्ति स्खलित या खंडित हो न पावे, एवं धर्मप्रवृत्ति के पूर्व इसके सहकारी कारणों का पूर्ण रूप से अवश्य संपादन करने का ध्यान में रहे। यह भी निमित्तों की अपेक्षा हैं कि उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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