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(ल०-) एतच्च विधिप्रवृत्तः सम्पादयति, अतः सर्वत्र विधिना प्रवर्तितव्यं, - सूत्राद् ज्ञातव्य आत्मभावः- प्रवृत्तावपेक्षितव्यानि निमित्तानि, यतितव्यमसंपन्नयोगेषु, - लक्षयितव्या विस्त्रो (प्र....श्रो) - तसिका, प्रतिविधेयमनागतमस्याः भयशरणाद्युदाहरणेन ।
(पं०-) 'सूत्र' इत्यादि, सूत्राद् = रक्त (प्र०.....अरक्त) द्विष्टादिलक्षणनिरूपकादागमात् 'ज्ञातव्यो' = बोद्धव्यः, आत्मभावः = रागादिरूप आत्मपरिणामो, यथोक्तं, 'भावणसुयपाढो तित्थसवणमसइ (प्र०.... सेवणसमयं) तयत्थजाणंमि । तत्तो य आयपेहणमइनिउणं दोस (प्र०.....निउणगुणदोस) विक्खाए' इति 'निमित्तानी'ति इष्टानिष्टसूचकानि शकुनादीनि सहकारिकारणानि वा । भयशरणाद्युदाहरणेने ति ‘सरणं भए उवाओ, रोगे किरिया, विसंमि (प्र०-वस्समि) मंतोत्ति' इत्युदाहरणम् । सिद्धान्तवासना के लिए उनके सिद्धान्त स्वीकार करने योग्य हैं। स्वीकार हृदयस्पर्शी एवं ठीक परिणतिकारी होने के लिए सिद्धान्त के अच्छे ज्ञाता पुरुषों की सम्यग् रीति से उपासना करनी आवश्यक हैं। उसीसे पुनः पुनः सत्सङ्ग, श्रवण, सम्यग् आचार के दर्शन-प्रेरणा इत्यादि मिलने से सिद्धान्त का सहकारमय श्रद्धा पूर्वक स्वीकार होता है।
___ मालाघटदृष्टान्तः असदपेक्षात्याग : जिनाज्ञा की आधीनता :- "एसी उपासना के साथ साथ "मुण्डमालालुका'' अर्थात् पुष्पमाला और घट का दृष्टान्त मननीय है । दृष्टान्त इस प्रकार है, गले में पहनी हुई पुष्पों की माला यदि अनित्य होने की प्रतीति होती है, तब वे पुष्प म्लान होने पर कोई शोक नहीं होता हैं; जब कि घडे में अगर नित्यपन की, कायमीपन की बुद्धि हो, तो एसा एक घड़ामात्र भी खंडीत होने पर उसे शोक होता है। संसार के पदार्थ एवं अनेक संयोग विनश्वर है एसी दृढ़ प्रतीति रखी जाए तो अनेक नाश या वियोग में शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं। विनश्वरता के कारण ही असद वस्त की अपेक्षा का एवं अ
ता. एवं अवास्तविक अपेक्षा का त्याग कर देना उचित है। अर्थात् उसकी एसी पराधीन आकांक्षा रखनी व्यर्थ है कि यह मेरा जीवन-आधार है, और यही मेरा सुख-साधन है। प्रश्न होगा कि तब जीवन में किसी न किसीकी अपेक्षा तो रहेगी, तो किसीकी अपेक्षा रखनी ? उत्तर यह है कि, जिन यानी वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर देव की आज्ञा की अपेक्षा रहनी चाहिए । अर्थात् अपना जीवन आज्ञाप्रधान बनाना जरुरी है। मन में हरघडी एसी अपेक्षा बनी रहे कि 'मेरा प्रत्येक विचारवाणी-वर्तन जिनाज्ञा को सापेक्ष हो, जिनाज्ञा के विरुद्ध न हो!" जिनाज्ञा के प्रति ऐसी सार्वत्रिक पराधीनता से युक्त रहा जीवन यह आज्ञाप्रधान जीवन है।
प्रणिधान : साधुसेवा से धर्मशरीर का पोषण :- "जीवन में जिनाज्ञा को प्रधान रखना, इतना पर्याप्त नहीं है; किन्तु साथ साथ प्रणिधान का भी आदर करना चाहिए; अर्थात् प्रणिधान द्वारा धर्मयोग को कर्तव्यरूप से वर्णित कर लेना एवं जो कुछ धर्मयोग का आचरण हो वह प्रणिधान युक्त ही होना आवश्यक है। प्रणिधान क्या है? 'षोडशक' ग्रन्थ में कहा है कि हीन गुण वालों के प्रति दयायुक्त मन और परोपकार की वासना से विशिष्ट, एवं स्वीकृत धर्मस्थान की मर्यादा में निश्चलता, से संपन्न, एसा जो धर्मक्रिया में कर्तव्यता का उपयोग (मनोलक्ष), यह प्रणिधान है। इससे अपने से नीचे गुणस्थानक में रहे जीवों के प्रति द्वेष, स्वार्थांधता, एवं चञ्चलता
और कर्तव्य-विस्मरण त्याज्य होता है। गृहीत किया गया धर्मशरण एवं धर्मयोगरूप शरीर भी साधु यानी मुनिजनों की सेवा से पुष्ट करना जरुरी है। कारण, बिना साधुसेवा धर्मशरण का विकास, धर्मयोग-संबन्धी आज्ञा का ज्ञान, धर्मयोग में स्थिरता एवं वृद्धिंगत आदर को जगानेवाली पुनः पुनः प्रेरणा धर्म योग के उपकार के बदले में कृतज्ञता का सेवन, धर्मयोग में जरुरी मूलभूत विनय,... इत्यादि सब कहां से प्राप्त होगा? और इन सबों के
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