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________________ (ल० धर्मस्वरूपम्-) एतच्च सिद्धान्तवासनासारो धर्ममेघो यदि परं विध्यापयति । अतः स्वीकर्तव्यः सिद्धान्तः- सम्यक् सेवितव्यास्तदभिज्ञाः- भावनीयं 'मुण्डमालालुका' ज्ञातं - त्यक्तव्या खल्वसदपेक्षा - भवितव्यमाज्ञाप्रधानेन - उपादेयं प्रणिधानं - पोषणीयं साधुसेवया धर्मशरीरं - रक्षणीयं प्रवचनमालिन्यम् । (पं०-) मुण्डमालालुकाज्ञातम्' इति, मुण्डमाला शिरःस्रग, आलुका = मृण्मयी वार्धटिका, ते एव ज्ञातं = दृष्टान्तो, - यथा, अनित्यताकृतबुद्धिम्लानमाल्यो न शोचति । नित्यताकृतबुद्धिस्तु भग्नभाण्डोऽपि शोचति ॥१॥ संताप जीव को पीड़ा करता रहता है। संसार यह शारीरिक, मानसिक, इत्यादि अनेक दुःखों का घर हैं, निवासस्थान है। तो प्रश्न है कि क्या सुखों का निवास नहीं है ? उत्तर, नहीं, नहीं है, क्यों कि वे भासमान सुख तो दुःख का एक प्रतिकार मात्र है, सचमुच सुख नहीं, उदाहरणार्थ, क्षुधा का दुःख यदि हो तो भोजन का सुख लगता हैं । वह भी सुख क्षणिक है, क्यों कि पुनः दुःख आ कर खडा होता ही है। कर्म, पदार्थो के संयोग, परिस्थिति, मन, इत्यादि पलट जाने पर उसी भोजनादि का सुख बाष्प की तरह अदृश्य हो जाता है। इसलिए भी वह सच्चा सुख ही नहीं है। तात्पर्य, संसार दुःखों का ही घर है, चाहे वह दुःख रोग रूप हो, दारिद्र रूप हों या पराधीनताअपयश-अपमान-चिंता-स्वमानहानि-इष्टवियोग इत्यादि रूप हो। दुर्लभ भवः दुःखद विषयादिः चञ्चल आयुष्य : "ऐसे संसार में सुज्ञ जन को प्रमाद करना योग्य नहीं। कारण यह है कि यह मनुष्य अवस्था यानी मानवभव अति दुर्लभ है, बार बार नहीं मिलता; और मनुष्य भव सिवा अन्यत्र ऐसी परलोकहितकारी धर्म-साधना भी शक्य नहीं, अत: इस भव में परलोकसाधना ही प्रधान है। यह भी इसलिए कि इस लोक की साधना यानी इन्द्रियों के इष्ट शब्दादि विषयों के सर्जन-संग्रह-भोग-प्रशंसा इत्यादि प्रवृत्ति परिणामकटु होती है; क्यों कि विषय परिणामकटु होते हैं, दारुण विपाक को देने वाले होते हैं। एवं जीव जिन कुटुंबपरिवारादि संयोगो में मोहमुग्ध हो कर परलोकसाधना को चूकता है, वे भी अन्त में अवश्य वियोग पाने वाले हैं। तो इस अल्प मानव-आयुष्य में इष्ट विषयों और परिवारादि-संयोगो में मुग्ध क्यों होना? 'नहीं, अभी तो मै मुग्ध हूँ, लेकिन बाद में परलोकसाधना करुंगा', - ऐसा भी ख्याल, आयुष्य के विश्वास में रह कर, करना उचित नहीं; क्यों कि आयुष्य भी बेचारा अकस्मात् पतन के यानी नाश के भय से पीडीत है, एवं पता नहीं कब मृत्यु हो; तो इसके भरोसे पर क्यों रहना? । आग बुझाओ:- "ऐसी सब परिस्थिति वाला संसारप्रज्ज्वलित हो उठे घर के उदर समान है; तो इसके अत्यन्त ताप से बचने के लिए संसार की आग बुझाने का प्रयत्न करना उचित है। संसार की आग बुझाने के उपाय : धर्ममेघ : सिद्धान्तवासना : सिद्धान्तज्ञसेवा :- "संसार की आग अगर कोई बुझा सकता हो तो वह सिद्धान्तवासना के बल वाला धर्ममेघ ही बुझा सकता है। देखते है कि धर्महीन जीव संसार के विविध ताप में तपे रहते हैं। धर्मयुक्त जीव ही उस ताप से बचते हैं। हां, इतना है कि धर्म सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त की वासना याने परिणतिस्वरूप श्रद्धा से समर्थित होना चाहिए । कारण, सर्वज्ञ भगवान मूल आप्त पुरुष यानी विश्वसनीय जन हैं, श्रद्वेयवचन हैं, और वे ही त्रिकालाबाध्य अतीन्द्रिय तत्त्व-सिद्धान्त प्रत्यक्ष देख कर कह सकते हैं। अतः एसी १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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