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२१. धम्मदेसयाणं ( धर्मदेशकेम्पः) (ल०-धर्मोपदेशे संसारस्वरूपम् - ) तथा 'धम्मदेसयाणं' तत्र 'धर्मः'प्रस्तुत एव, तं यथाभव्यममिदधति; तद्यथा, प्रदिप्तगृहोदरकल्पोऽयं भवो, निवासः शारीरादिदुःखानां, न युक्तः इह विदुषः प्रमादः, यतः अतिदुर्लभेयं मानुषावस्था, प्रधानं परलोकसाधनं, परिणामकटवो विषयाः, विप्रयोगान्तानि सत्सङ्गतानि, पातभयातुरमविज्ञातपातमायुः । तदेवं व्यवस्थिते विध्यापनेऽस्य यतितव्यं ।
अमृत आशय रूप है। आशय को अमृत रूप इस लिए कहा कि जब अमैत्री यानी वैर विरोध का आशय स्व-पर का घात करने से विषरूप है, तब उत्कृष्ट मैत्रीभाव का आशय किसी का घात नहीं किन्तु आत्मा को अमृत पदमोक्षपद दिलाने से अमृत का कार्य करता हैं। साधु धर्म इस स्वरूप है।
अचिन्त्यप्रभावशाली भगवदनुग्रह प्रधान कारण है :__ अब अरिहंत भगवान जो धर्मदान आदि करते हैं उनका क्रमशः पांच सूत्रो से प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं कि पूर्वोक्त द्विविध चारित्रधर्म भगवद्-अनुग्रह रूप सहकारी कारण के बिना सिद्ध हो सकता नहीं है। कारण यह है कि बेशक जीव को धर्म जो सिद्ध होता है वह अपनी योग्यता, गुरुसंयोग, भगवदंनुग्रह, वीर्योल्लास इत्यादि विविध कारण मिलने पर हो सकता है, लेकिन इन सभी कारणो में भगवान का अनुग्रह यह ज्येष्ठ कारण है; क्यों कि वह अचिन्त्य सामर्थ्यवाला है। इसलिए फलित होता है कि जो पुरुष धर्म को समीपवर्ती हुआ उसे, परमगुरु अर्हद् भगवान के प्रति बहुमान जो कि भवनिर्वेद यानी संसार-उद्वेग स्वरूप है, वह प्राप्त नहीं हुआ ऐसा नहीं, हुआ है। कारण स्पष्ट है कि सम्यग् उपदेशपाने की योग्यता भगवद्-बहुमान से ही प्राप्त होती है; और उसके बाद ऐसी योग्यता से धर्म अवश्य प्राप्त होता है । तब साक्षात् तो भगवद् बहुमान एवं धर्मयोग्यता का कार्यकारणभाव हुआ, लेकिन परंपरा से भगवद्-बहुमान एवं प्रस्तुत धर्म का कार्य-कारणभाव हुआ; बहुमान कारण हुआ, और धर्म कार्य । इससे भगवद् बहुमान का आधिपत्य सिद्ध होता है, अर्थात् वह अचिन्त्य प्रभावशाली होने से प्रस्तुत धर्म-सिद्धि के निखिल कारणों में प्रधान कारण सिद्ध होता हैं।
__ अब यहां धर्म कार्य है, और सद्देशनाकी योग्यता कारण है, और 'घृतम् आयुः' आदि के दृष्टान्तो से यदि कारण में कार्य का अध्यारोप करें अर्थात् कारण कार्य के नाम से संबोधित किया जाए, तो सद्देशना की योग्यता को भी 'धर्म' कह सकते हैं। अर्हद् भगवान ऐसी योग्यतारूप धर्म को देते हैं अतः वे धर्मद कहलाते हैं ।। २० ॥
२१. धम्मदेसयाणं (धर्मोपदेश करने वालों को) धर्मोपदेश में कथित संसारस्वरूप:
अब 'धम्मदेसयाणं' पद की व्याख्या:-धर्म के उपदेशक अर्हत् प्रभु के प्रति मेरा नमस्कार हो। यहां 'धर्म' शब्द से प्रस्तुत चारित्र धर्म ही समझना। प्रभु उस धर्म का यथार्थ रूप में प्रतिपादन करते हैं। प्रतिपादन इस प्रकार, -
संसार प्रज्ज्व लित गृह समान है- "यह संसार आग से जल उठने वाले घर के मध्य भाग समान है। जल उठे घर में बैठे हुए पुरुष को चारों ओर से ताप लगता हैं। संसार में ऐसा ही है; क्यों कि उसके भीतर चारों ओर से आधि-व्याधि-उपाधि, जन्म-जरा-मृत्यु, रोग-शोक-दारिद्र आदि, राग-द्वेष-मोह, इत्यादि का भारी
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