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________________ (ल०-कथं भगवदनुग्रहः?-) नायं भगवदनुग्रहमन्तरेण, विचित्रहेतुप्रभवत्वेऽपि महानुभावतयाऽस्यैव प्राधान्यात् । भवत्येतदासनस्य भगवति बहुमानः, ततो हि सद्देशनायोग्यता, ततः पुनरयं नियोगतः; इत्युभयतत्स्वभावतया तदाधिपत्यसिद्धेः । कारणे कार्योपचाराद् धर्म ददतीति धर्मदाः ॥२०॥ यानी खडी कायोत्सर्ग मुद्रा से ध्यान किया जाता है। उस दिन स्नान नहीं, दुग्धादिविकृतिभोजन नहीं, रात्रिब्रह्मचर्य, इत्यादिका पालन रहता हैं । ६.अब्रह्म-प्रतिमा में उपरोक्त क्रियाओंसे युक्त रह कर दिवस-रात्रि अब्रह्म याने मैथुन का कम में कम ६ मास तक त्याग किया जाता है। ७. सचित-प्रतिमा में कम में कम ७ मास तक सचित याने सजीव जल आदि का त्याग किया जाता है। ८. आरम्भ-प्रतिमा में आठ मास तक स्वयं आरंभ-समारंभ का त्याग करते हैं; और कदाचित् आदमी से काम लें तो सावधानी से लेते हैं। ९. प्रेष्य-प्रतिमा में आदमी से भी आरंभसमारंभ कराने का परित्याग किया जाता है। १०. उद्दिष्ट-प्रतिमा में दस मास तक अपने लिए बनाये हुए आहार का भी त्याग किया जाता हैं, और पूर्वोक्त सभी साधनाओं के साथ स्वाध्याय-ध्यान में लीन रहना होता है । ११. श्रमणभूत प्रतिमा में ११ मास तक साधु समान हो साधु क्रिया का पालन किया जाता है; बाद में कोई तो साधु दीक्षा का स्वीकार ही कर लेते हैं अथवा कोई गृहस्थ बने रहते हैं। ऐसे अणुव्रतादि एवं प्रतिमा सम्बन्धी क्रिया से सिद्ध होने वाली जो आन्तरिक शुद्ध आत्मपरिणति, यह है श्रावक धर्म । इन सभी क्रिया में मुख्य उद्देश तो शीघ्र साधुधर्म अङ्गीकार करने का रहता है, इस लिए श्रावकधर्म की आत्मपरिणति को साधुधर्म की तीव्र अभिलाषा स्वरूप कहा है। साधुधर्म :दूसरे प्रकार का धर्म साधुधर्म है; और वह भी आन्तरिक आत्मपरिणति स्वरूप ही है; क्यों कि (१) धर्म यह असल में मोहनीयादि कर्मो के क्षायोपशमिक भाव, औपशमिक भाव अथवा क्षायिक भाव (अर्थात् क्षयोपशम, उपशम या क्षय) स्वरूप होता है; और वह क्षायोपशमिकादि भाव कर्म के क्षयोपशमादि से उत्पन्न होने वाली शुद्ध आत्मपरिणति है। (२) यह आत्मपरिणति यावज्जीव का सामायिक, पञ्च महाव्रत वगैरह सम्बन्धी ज्ञानादि पंचाचार की विशुद्ध क्रिया से अभिव्यक्त होनेवाली होती हैं, एवं (३) समस्त जीवों के कल्याण की वृत्ति रूप अमृत से भरी हुई होती हैं। यहां तीन बातें बताई, - (१) धर्म क्षायोपशमिकादि भावरूप है; कारण धर्म चाहे साधुधर्म लिया जाए या श्रावक धर्म, लेकिन उसके मूल में सम्यग्दर्शन तो आवश्यक है ही; बिना सम्यग्दर्शन न कोई साधु-धर्म या न कोई श्रावकधर्म प्राप्त हो सकता हैं । और वह सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वमोहनीय-कर्म के क्षयोपशम, उपशम, या क्षय से उत्पन्न होता हैं। इस से यह साबित हुआ कि धर्म के मूल में कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है। अब आगे देखिए कि धर्म कर के यदि साधुधर्म लें तो वह क्षमादि दश प्रकार का होता है, और वे क्रोधादि पैदा करनेवाले क्रोध-मोहनीयादि कर्म के क्षयोपशमादि से उत्पन्न होते हैं। एवं धर्म अगर श्रावक-व्रतादि रूप गृहीत किया जाए, तो वे व्रतादि भी दर्शनमोह के क्षयोपशम के साथ क्रोधलोभादिमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से जन्म पाते हैं। १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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