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श्रावक धर्म :-श्रावकधर्म एक ऐसा विशुद्ध आत्मपरिणाम है कि जो अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत से, एवं श्रावकप्रतिमा सम्बन्धी क्रिया से साध्य होता है; और वह साधुधर्म की अत्यन्त अभिलाषा स्वरूप होता है। जिसे साधु धर्म यानी संपूर्ण अहिंसादिमय निष्पाप जीवनकी इच्छा नहीं उसमें जैनत्व नहीं।
___ अणुव्रत अर्थात् छोटे व्रत; जिन में हिंसादि पापों का सूक्ष्मता से नहीं किन्तु स्थूलता से त्याग करने की प्रतिज्ञा होती हैं। ये अणुव्रत पांच प्रकार के होते हैं, १. स्थूल प्राणातिपातविरमणव्रत (स्थूल हिंसा से निवृत्ति की प्रतिज्ञा), २. स्थूलमृषावाद (असत्य) - विरमणव्रत, ३. स्थूलअदत्तादान (चोरी)-विरमणव्रत, ४. स्थूलमैथुन - विरमणव्रत (स्वस्त्रीसंतोष - परस्त्रीत्याग की प्रतिज्ञा), और ५. स्थूलपरिग्रह - विरमणव्रत (परिग्रह का संकुचित परिमाण रखने की प्रतिज्ञा)।
गुणव्रत अर्थात् अणुव्रतों के गुणकारी याने उपकारक व्रत । वे तीन हैं,
१. दिक्परिमाणवत, चारों दिशाओं और ऊंचे नीचे अधिक से अधिक कितनी मर्यादा तक ही गमनागमन करना उसका व्रत। २. भोगोपभोगपरिमाण व्रत, - खाने पीने की वस्तुओं का नियमन, अनंतकायादि २२ अभक्ष्य का त्याग, एवं अंगारकर्मादि १५ कर्मादान के व्यापार, कि जिनमें भारी आरंभ-समारंभ यानी हिंसा, या संक्लिष्ट मन होना संभवित है, उनका त्याग । ३. अनर्थदंड-विरमणव्रत, यानी जीवन जीने में निरुपयोगी एवं निरर्थक प्रचंड कर्मदंड देने वाले व्यवसायों के त्याग का व्रत; जैसे कि शस्त्र अग्नि वगैरेह अधिकरण (पापउपकरण) का दान, पापोपदेश, मौजशौक आदि प्रमादआचरण, एवं दुर्ध्यान; इन से रुकना।
शिक्षाव्रत चार हैं, और, वे पुनः पुनः अभ्यास करने योग्य हैं । १. सामायिकव्रत = दो घडी के लिये प्रतिज्ञा पूर्वक पापप्रवृत्ति त्याग कर धर्मध्यान में बैठना। २. देशावकाशिकव्रत = दिनभर के लिए अन्य व्रतों में संयम बढाना और सामायिकों में रहना। ३. पोषधव्रत = दिन, रात्रि या अहोरात्रि के लिए सामायिक पूर्वक, आहार-शरीरसत्कार - मैथुन और व्यापार, इन चारों का त्याग कर धर्मध्यान में रहना। ४. अतिथिसंविभागवत = तप-संयमादि युक्त साधु-साध्वी को दान दिये बिना भोजन न करने का व्रत (आज दिनरात का पोषध और उपवास कर पारणा में ऐसा सुपात्रदान देने पूर्वक एकाशन तप किया जाता है।)
११ श्रावकप्रतिमा :
श्रावक धर्म को विशेष रूप से उज्ज्वलित करने के लिए देवादि के भी उपद्रवों से चलित हुए बिना जो ग्यारह विशिष्ट साधना की प्रतिज्ञाएँ पालित की जाती है वे प्रतिमा (पडिमा)कही जाती हैं । वे उत्तरोत्तर गुणस्थान की वृद्धि से होती है, और बाह्य क्रिया से ज्ञात होती है। उनमें कालमान क्रमशः एक-एक मास अधिक होता है; जैसे कि पहली प्रतिमा एक मास की, दूसरी दो मास की, तीसरी तीन मासकी... एवं ग्यारहवीं ग्यारह मासकी; और पूर्व पूर्व प्रतिमा की साधना आगे आगे प्रतिमाओं में चालू रहती हैं। क्रमशः ग्यारह प्रतिमाओं में :- १. दर्शनप्रतिमा में शुश्रूषा यानी धर्मश्रवण की उत्कट इच्छा, उत्कट धर्मराग और देव-गुरु के वैयावृत्त्य (सेवा) का यथाशक्ति नियम, इन से सम्यग्दर्शन की साधना की जाती है। २. व्रत प्रतिमा में पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन और व्रतों पर दृढ़ ममत्व, जिनाज्ञानुसार और लेश मात्र क्षति बिना किया जाता हैं । ३. सामायिक - प्रतिमा में आत्मवीर्य उल्लसित कर रजत की शुद्धि और कान्ति के समान शुद्धि-कान्तिवाले अनेक सामायिक किये जाते हैं। ४. पोषधप्रतिमा में पर्व दिवसों में उत्तरोत्तर विशुद्ध अधिक विशुद्ध और यतिपन के भाव के साधक ऐसे निरतिचार पोषध किये जाते हैं । ५. प्रतिमा-प्रतिमा में उसी पर्वो में रात्रि के समय प्रतिमा-मुद्रा
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