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________________ (पं०-) सद्देशनेत्यादि,' इदमत्र हृदयम् - सद्देशनाया योग्यताया विधायिनो 'अनुग्रहस्य' स्वविषये बहुमानलक्षणस्य प्राक् सम्पादनेन, 'आदि' शब्दात् तद्नु सद्देशनया, यत् तात्त्विकधर्म्मस्य दातृत्वम्, 'आदि' शब्दात् परिपालनं, तेन, परमया = भावरूपया, शास्तृत्वसम्पदा धर्म्मचक्रवर्त्तित्वरूपया, समन्विता: सङ्गता युक्ता भगवन्त इति । (Mo-धर्मो द्विविधचारित्रधर्म :- ) इह धर्म्मश्चारित्रधर्म्मः परिगृह्यते; स च श्रावकसाधुधर्म्मभेदेन द्विघा । श्रावकधर्मोऽणुव्रताद्युपासकप्रतिमागतक्रियासाध्यः साधुधर्म्माभिलाषातिशयरूपः आत्मपरिणामः, साधुधर्म्मः पुनः सामायिकादिगतविशुद्धक्रियाभिव्यङ्ग्यः सकलसत्त्वहिताशयामृतलक्षणः स्वपरिणाम एव, क्षायोपशमिकादिभावस्वरू पत्वाद्धर्म्मस्य । भगवान के द्वारा धर्मदेशना की योग्यता का अनुग्रह :- पहले प्रभु जीवों में सम्यग् उपदेश के श्रवण की योग्यता का संपादक अनुग्रह करतें हैं। योग्यता के बिना श्रवण निरर्थक है। = प्र० - अनुग्रह क्या चीज है ? उ०- अनुग्रह यह अपने विषय के प्रति बहुमान स्वरूप होता है। प्रस्तुत में सम्यग्देशना की योग्यता का अनुग्रह करना है, तो वह अनुग्रह सम्यग्देशना के प्रति श्रोता जीव में प्रगट होने वाले बहुमान स्वरूप होगा । भगवान भव्य जीव में पहले ऐसे बहुमान स्वरूप अनुग्रह का संपादन करते हैं; और उसीसे उपदेशग्रहण की योग्यता आती है। बात भी सही है कि जो कुछ सदुपदेशग्रहण आदि आत्मसंपत्ति सिद्ध करनी है वह तभी सिद्ध हो सकेगी कि जब पहले उसके प्रति आदर बहुमान होगा। बिना बहुमान, कदाचित् सदुपदेश सुन भी ले, या धर्मक्रिया कर भी ले, तो भी आत्मा में वह उपदेश या धर्म असरकारक हो सकता नहीं है। यह बहुमान होना परमात्मा का अनुग्रह है, क्यों कि उनके अचिन्त्य प्रभाव से ही वह प्राप्त होता है । भगवान ही धर्मोपदेश - धर्मदान धर्मरक्षण के अनुग्रह करने द्वारा भावशासक : भगवान बहुमान का संपादन आदि करने द्वारा तात्त्विक धर्म के दानादि करते हैं। 'संपादन आदि' में 'आदि' पद से यह विविक्षित है कि सदुपदेश का बहुमान प्रगट कराने के बाद सदुपदेश भी देते हैं । एवं इसके द्वारा भगवान तात्त्विक धर्म के दान आदि करते हैं। यहां 'आदि' शब्द से जीव में धर्म का परिपालन भी विवक्षित है। इस प्रकार वे परम शासकपन की यानी द्रव्यशासकता नहीं किन्तु भावशासकता की संपत्ति से युक्त होते हैं । द्रव्यशासक पृथ्वी के चक्रवर्ती राजा को कहते हैं; जब कि, भगवान तो भावशासक अर्थात् धर्मचक्रवर्ती हैं। यह सब दिखलाने के लिए यहां सूत्रकार 'धम्मदयाणं', - इत्यादि पांच सूत्र कहते हैं । धर्मदाता = द्विविध चारित्र धर्म के दाता : 'धम्मदयाणं' पद में 'धम्म' कर के, श्रुत धर्म ( शास्त्रज्ञान) और चारित्र धर्म इन दो प्रकार के धर्मो में से चारित्र धर्म लिया जाता है । चारित्र धर्म, श्रावक-धर्म और साधु-धर्म इन दो भेदों से दो प्रकार का होता है। श्रावक धर्म को देशचारित्र ( आंशिक चारित्र) कहते हैं, साधु धर्म को सर्वचारित्र कहते हैं। दोनों प्रकार का धर्म तत्त्वरूप से बाह्य व्रतक्रिया स्वरूप नहीं है, किन्तु उनसे साध्य आभ्यन्तर आत्म-परिणति स्वरूप है। आत्मा एक ऐसा विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है जिसे तात्त्विक धर्म, निश्चय-धर्म कहते हैं । व्यवहार-धर्म बाह्य व्रतादि क्रिया स्वरूप होता है। इसमें में Jain Education International १५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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