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________________ २० धम्मदयाणं (धर्मदेभ्यः) (ल०विशेषोपयोगसंपत्) सद्देशनायोग्यताविधाय्यनुग्रहसम्पादनादिना तात्त्विकधर्मदातृत्वादिप्रकारेण परमशास्तृत्वसम्पत्समन्विता भगवन्त इति न्यायतः प्रतिपादयन्नाह 'धम्मदयाणं' मित्यादिसूत्रपञ्चकम् । महात्मा गोपेन्द्र परिव्राजक का प्रमाण: अभयादि पंचक में अन्य दर्शन का भी प्रमाण मिलता है या नहीं, तो कहते हैं कि जैन के सिवा अन्य मुमुक्षुओं को भी अभयादि-पंचक इष्ट हैं; कारण, महात्मा गोपेन्द्र नाम के परिव्राजकने कहा है, - "निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ धृतिः - श्रद्धा - सुखा - विविदिषा - विज्ञप्तिरिति तत्त्वधर्मयोनयः, नानिवृत्ताधिकारायां, भवन्तीनामपि तद्रूपताऽयोगात्' । अर्थात् अनादिकाल से सत्त्व-रजस्-तमस् स्वरूप त्रिगुणात्मक प्रकृति यानी ज्ञानावरणादि कर्म से चेतन पुरुष का अभिभव हुआ है, वशीकरण हुआ है। इससे, यों तो सर्वशुद्ध पुरुष और प्रकृति का भेद होने पर भी, यह भेद ज्ञात नहीं रहता । प्रकृति का पुरुष के उपर यह अधिकार यानी अभिभवक्रिया जब निवृत्त होती है, तब धृति, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा और विज्ञप्ति उत्पन्न होती है। ये क्रमशः अभय, चक्षु आदि के ही अपर नाम हैं; और वे 'तत्त्वधर्मयोनि' यानी पारमार्थिक कुशल के उत्पत्ति-स्थान कही गई हैं। यहां प्रकृति के अधिकार की निवृत्ति होने पर ही धृति आदि के उत्पन्न होने का विधान किया, इस में 'ही' कार से निषेध्य को स्पष्ट करते हैं कि प्रकृति का अधिकार निवृत्त न होने पर धृति वगैरेह उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। कारण यह है, कि यदि कदाचित् किसी कारणवश धृति वगैरह तत्त्वधर्मयोनि के नाम से उत्पन्न हो भी, तब भी प्रकृति का अधिकार निवृत्त न होने से वे तात्त्विक धृति आदि के स्वभाव वाली नहीं होती हैं।" इतना गोपेन्द्र का कथन है। __यहां पांचवी धर्मयोनी विज्ञप्ति, यह बोधि यानी जिनोक्त धर्म-प्राप्ति स्वरूप है; क्यों कि वह बोधि के प्रशम, संवेग आदि लक्षणों से भिन्न नहीं होती है। अतः अभयादि में अन्य का भी प्रमाण बतलाया । बोधि की प्राप्ति भी अर्हद् भगवान के द्वारा ही होती है यह पूर्वोक्त विस्तार से समझ लेना। इस प्रकार भगवान बोधि को देते हैं अतः वे बोधिदाता हैं । यह सूचित करने के लिए स्तुति की 'बोहिदयाणं'। 'अभयदयाणं' आदि पांच पदों की संपदा का उपसंहार :- इस प्रकार अभयदान, चक्षुदान, मार्गदान, शरणदान और बोधिदान,- इन पांच दानो से ही अरहंत परमात्मा में पूर्वोक्त लोकोत्तमता, लोकनाथता, लोकहितरूपता, लोकप्रदीपपन और लोकप्रद्योतकता स्वरूप उपयोग सिद्ध होता है। तो वे उपयोग के हेतु होने से, उनके दर्शक अभयदयाणं आदि पांच पदों की संपदा उपयोगसंपदा की हेतुसंपदा हुई । यह ५ वी संपदा हुई । २०. धम्मदयाणं (चारित्रधर्म देशना की श्रवणयोग्यता के दाता को) विशेषोपयोग-संपदा :- अब अर्हत् परमात्मा के विशेष उपयोगों के दर्शक पांच पदों की संपदा कही जाती है। भगवान सद् देशना की योग्यता प्रगट कराने वाले अनुग्रह का संपादन आदि कर के तात्त्विक धर्मदाता आदि हो अन्त में परम शासकता की संपत्ति वाले होते हैं, - यह न्याय से प्रतिपादन करते हुए, 'धम्मदयाणं' इत्यादि पांच सूत्र कहते हैं। यहां तात्पर्य यह हैं : १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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