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(पं०-) योग्यतामेवाह 'योग्यता च' = प्रागुपन्यस्ता अभयादीनाम् 'आफलप्राप्ते': = चक्षुरादिफलप्राप्ति यावत्, 'तथा' = फलानुकू ला, 'क्षयोपशमवृद्धिः' = स्वावारक कर्मक्षयविशेषवृद्धिः 'लोकोत्तरभावामृतास्वादरूपा'लोकोत्तरभावा विहितौदार्य्यदाक्षिण्यादयः, त एवं अमृतं सुधा, तदास्वादरूपा; अत एव वैमुख्यकारिणी = विमुखताहेतुः, 'विषयविषाभिलाषस्य' = विषाकारविषयवाञ्छारूपस्येति । ततः किमित्याह 'नच' = नैव, ‘इयम्'= उक्तरूपा क्षयोपशमवृद्धिः, अपुनर्बन्धकं,' पापं न तीव्रभावात् करोती'त्यादि लक्षणम्, 'अन्तरेण' = विना, अन्यस्य भवबहुमानित्वात्, ततः किमित्याह 'इति' = एतद्, 'भावनीयं' यदुत पञ्चकमप्येतदपुनर्बन्धकस्येति हेतुं, स्वरूपं, फलं चापेक्ष्य विचारणीयम्।
(ल०-गोपेन्द्रपरिव्राजक-प्रमाणम्) इष्यते चैतदपरैरपि मुमुक्षुमिः, यथोक्तं भगवद्गोपेन्द्रेण 'निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ धृतिः, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा, विज्ञप्तिरिति तत्त्वधर्मयोनयः; नानिवृत्ताधिकारायां, भवन्तीनामपि तद्रूपतायोगाद्' इति । विज्ञप्तिश्च बोधिः प्रशमादिलक्षणाभेदात् । एतत्प्राप्तिश्च यथोक्तप्रपञ्चतो भगवद्भ्य एवेति बोधिं ददतीति बोधिदाः ॥१९॥
एवमभयदान-चक्षुर्दान-मार्गदान-शरणदान-बोधिदाने भ्य एव यथोदितोपयोगसिद्धरुपयोगसम्पद एव हेतुसम्पदिति । (५. संपत्)
. (पं०-) परमतसंवादेनाप्याह 'इष्यते च' 'एतद्' = अभयादिकम्, 'अपरैरपि' = जैनव्यतिरिक्तैः (अपि) 'मुमुक्षुभिः' कथमित्याह 'यथोक्तं' = यस्मादुक्तं, 'भगवद्गोपेन्द्रेण' = भगवता परिव्राजकेन गोपेन्द्रनाम्ना, उक्तमेव दर्शयति 'निवृत्ताधिकारायां' = व्यावृत्तपुरुषाभिभवलक्षणस्वव्यापारायां, 'प्रकृतौ' सत्त्वरजस्तमोलक्षणायां, ज्ञानावरणादिकर्मणीत्यर्थः, 'धृतिः-श्रद्धा-सुखा-विविदिषा-विज्ञप्तिरित्येता' यथाक्रममभयाद्यपरनामानः 'तत्त्वधर्मयोनयः' = पारमार्थिककुशलोत्पत्तिस्थानानि, भवन्तीति । व्यवच्छेद्यमाह 'नानिवृत्ताधिकारायां' प्रकृताविति गम्यते, कुत इत्याह 'भवन्तीनामपि' धृत्यादिधर्मयोनीनां, कुतोऽपि हेतोः प्रकृतेरनिवृत्ताधिकारत्वेन, 'तद्रूपताऽयोगात्' = तात्त्विकधृत्यादिस्वभावाभावाद्, 'इतिः' परोक्तसमाप्त्यर्थः । एवमपि किमित्याह 'विज्ञप्तिश्च' पञ्चमी धर्मयोनिः ‘बोधिः' = जिनोक्तधर्मप्राप्तिः, कुत इत्याह 'प्रशमादिलक्षणाभेदात् प्रशमसंवेगादिभ्यो लक्षणेभ्योऽभेदाद अव्यतिरेकाद्विज्ञप्तेः ।
शब्दादिविषयों की वाञ्छा से जीव को पराङ्मुख कर ने में वह कारण होती है। विषयविष की तृष्णा तब तक रहती है कि जब तक तात्त्विक अभय, चक्षु, वगेरेह अमृत का अनुभव नहीं किया जाता । ऐसा अमृत-आस्वाद, आवारक कर्म के क्षयोपशम की वृद्धि होने पर होता है; और वह वृद्धि, ख्याल में रहे कि, अपुनर्बन्धक जीव को छोड़ कर अन्यों को नहीं हो सकती हैं; क्यों कि वैसे अन्य जीव संसार पर बहुमान रखने वाले होते हैं। जहां संसार पर बहुमान है, पक्षपात है, उस जीव में औदार्य, दाक्षिण्य, पापभय आदि नहीं हो सकते हैं, तो तात्त्विक अभयादि का अमृतस्वभाव कहां से अनुभव में आ सकेगा? अपुनर्बन्धक जीव तो तीव्र भाव से पाप करता नहीं है, घोर संसार के प्रति बहुमान रखता नहीं है, और सर्वत्र औचित्य का पालन करता है, तो उसे अभयादि पाने पर चक्षु आदि फल प्राप्त कराये ऐसी क्षयोपशम की वृद्धि हो सकती है; इसलिए अभयादि पांच गुण अपुनर्बन्धक जीव को ही प्राप्त हो सकते हैं, यह वस्तु, इस के कारण, स्वरूप और फल की अपेक्षा से चिन्तनीय है। तात्पर्य, अभयादि के कारण कौन बनते हैं, उनका स्वरूप क्या क्या होता हैं, और उनसे कैसा कैसा फल अपेक्षित है, यह सोचने से 'वे अपुनर्बन्धक जीव को ही प्राप्त हो सकते हैं,' - ऐसा समझ में आ जाएगा।
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