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________________ (ल०-आभासरूप-अभयादिः-) एवं चोत्कृष्टस्थितेराग्रन्थिप्राप्तिमेते भवन्तोऽप्यसकृन्न तद्रूपतामासादयन्ति, विवक्षितफलयोग्यतावैकल्यात् । । (पं०-) यदि नामैवं ततः किम् ? इत्याह 'एवं च' इतरेतरफलतायां च सत्याम् 'उत्कृष्टस्थितेः' मिथ्यात्वादिगतायाः, 'आ' इति प्रारभ्य, 'ग्रन्थिप्राप्ति' समयसिद्धग्रन्थिस्थानं यावद्, 'एते' अभयादयो, 'भवन्तोऽपि' जायमाना अपि, 'असकृद्' अनेकशः, 'न' नैव, 'तद्रूपतां भावरूपाभयादिरूपताम्, 'आसादयन्ति' लभन्ते, कुत इत्याह 'विविक्षितफलयोग्यतावैकल्यात्,' विवक्षितं फलमभयस्य चक्षुः, चक्षुषो मार्गः, इत्यादिरूपं, तज्जननस्वभावाभावात् । (ल०-वास्तवाभयादियोग्यतास्वरू पम्-) योग्यता चाफलप्राप्तेस्तथाक्षयोपशमवृद्धिः, लोकोत्तरभावामृतास्वादरूपा, वैमुख्यकारिणी विषयविषाभिलाषस्य । न चेयमपुनर्बन्धकमन्तरेणेति भावनीयम् । करता हैं, वह अभय सच्चा अभय ही नहीं है, सच्चा आत्मस्वास्थ्य यानी धृति ही नहीं है। एवं मार्ग को न उत्पन्न कर सकने वाली चक्षु में चक्षु की पूर्वोक्त रुचिरूपता नहीं हो सकती है। इस प्रकार शरण को पैदा नहीं कर सकने वाले मार्ग में पूर्वोक्त मार्गरूपता ही नहीं, और बोधि को पैदा नहीं कर सकने वाले शरण में शरणरूपता यानी विविदिषा (तत्त्वजिज्ञासा) रूपता ही नहीं हो सकती है। वास्तविक अभयादिकी विशेषता :प्र०- अभयादि पांच वैसे ही होने में क्या विशेषता? क्रम बिना भी हो, तो क्या हानि? उ०- क्रम बिना भी आभासरूप अभय वगैरह पैदा हो तो सकते हैं, अर्थात् मिथ्यात्वादि कर्मो की उत्कृष्ट कालस्थिति से ले कर हास होते होते शास्त्रप्रसिद्ध 'ग्रन्थिदेश' तक की कालस्थिति रहने पर भी ये अभयादि गुण क्रमनियम बिना उत्पन्न नहीं होते हैं वैसा नहीं, अनेक बार उत्पन्न होते हैं, लेकिन जब सच्चे अभयादिमें पूर्व पूर्व गुण उत्तरोत्तर गुण का उत्पादक होता है, तब क्रमशून्य वे आभासरूप अभयादि वास्तविक अभयादि का स्वरूप प्राप्त कर सकते नहीं है। इसका कारण यह है कि वैसे अभयादि में उस - उस विवक्षित फल की योग्यता नहीं हैं; अर्थात् अभयका फल चक्षु, चक्षु का फल मार्ग,..... इत्यादि फल पैदा करने का स्वभाव उनमें नहीं है। अभयादि में योग्यता क्या है ? - प्र- अभय से चक्षु, चक्षु से मार्ग..... इत्यादि अवश्य उत्पन्न करने वाले सच्चे अभयादि गुणों में जो योग्यता यानी स्वभाव होता है उसका स्वरूप क्या है ? उ०- जहां तक उस-उस अभयादि का चक्षु आदि फल प्राप्त न हो, वहां तक फल के आवारक मोहनीय कर्म का क्षयोपशम बढ़ता रहे, यह सच्चे अभयादिका स्वरूप है। यह क्षयोपशम की वृद्धि वही योग्यता है, और फल के प्रति वह अनुकूल होती है; क्यों कि वह आगे जा कर फल में परिणत होती है। प्र०- ऐसी योग्यता क्या अनुभव में आ सकती है? उ०- हां, शास्त्रोक्तं उदारता, दाक्षिण्य, पापभीरुता, निर्मल बोध, इत्यादि लोकोत्तर भाव जब अमल में आते हैं तब उनका अमृत की भांति जो आस्वाद होता है, योग्यता इसी आस्वाद स्वरूप होती है। तो उसका अनुभव शक्य है । अभयादि में रही हुई यह योग्यता औदार्यादि-अमृत के आस्वाद रूप होने से ही, विषसमान त १५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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