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________________ १९ बोहिदयाणं (बोधिदेभ्यः) । (ल०-) तथा 'बोहिदयाणं' । इह बोधिः जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिः । इयं पुनर्यथाप्रवृत्तापूर्वाऽनिवृत्तिकरणत्रयव्यापाराभिव्यङ्ग्यमभिन्नपूर्वग्रन्थिभेदतः पश्चानुपूर्व्या प्रशम-संवेगनिर्वेदाऽनुकम्पा-ऽऽस्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं; विज्ञप्तिरित्यर्थः । पञ्चकमप्येतदपुनर्बन्धकस्य यथोदितस्य,अस्य पुनर्बन्धके स्वरूपेणाभावात् । इतरेतरफलमेतदिति नियमः, अनीदृशस्य तत्त्वायोगात् । न ह्यचक्षुष्फलमभयं, चक्षुर्वाऽमार्गफलम्,..... इत्यादि । (पं०-) बोहिदयाणं । पञ्चकमपि' = अभयचक्षुरादिरूपम् (अपि), आस्तां प्रस्तुता बोधि; 'एतद्' अनन्तरोक्तम् 'अपुनर्बन्धकस्य' उक्तलक्षणस्य, कुत इत्याह 'यथोदितस्य' = उक्तनिर्वचनस्य, 'अस्य' = पञ्चकस्य, 'पुनर्बन्धक = अपुनर्बन्धकविलक्षणे, ‘स्वरूपेण' = स्वस्वभावेन, 'अभावात्' । अस्यैव हेतो : सिद्ध्यर्थमाह 'इतरेतरफलं' इतरस्य = पूर्वपूर्वस्य, 'इतरद्' = उत्तरोत्तरं, 'फलं' = कार्य, 'एतत्' = पञ्चकम्, 'इति' = एषः, 'नियमो' = व्यवस्था । कुत एतदित्याह 'अनीदृशस्य' = इतरेतराफलस्य पञ्चकस्य, 'तत्त्वायोगात्,' तत्त्वस्य = अभयादिभावस्य, 'अयोगाद्' = अघटनात् । एतदेव भावयति 'न हि' = नैव, 'अचक्षुष्फलं = नास्तिचक्षुः फलमस्य तत्तथा, 'अभयं' चक्षुर्वा' उक्तरूपम्, 'अमार्गफलं' = मार्गलक्षणफलरहितमिति 'आदि' शब्दान्मार्गोऽशरणफलः, शरणं चाबोधिफलमिति । १९. बोहिदयाणं (सम्यग्दर्शन देने वालों को) अब 'बोहिदयाणं' पद की व्याख्या करते हैं । 'बोधि' शब्द का अर्थ जिनप्रणीत यानी वीतराग सर्वज्ञ श्री अरिहंत परमात्मा के द्वारा उपदिष्ट धर्म की प्राप्ति होता है; उसका अर्थ है तत्त्वार्थ- श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन । (जिनोपदिष्ट धर्म है श्रुतधर्म और चारित्रधर्म; उसकी प्राप्ति यानी उसे प्राप्त होना, उसके समीप आना । समीप आने का जिनोक्ततत्त्वों की श्रद्धा से होता है, अतः धर्म-प्राप्ति हुई तत्त्वार्थश्रद्धा-सम्यग्दर्शन स्वरूप।) यह सम्यग्दर्शन (१) यथाप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों की प्रवृत्ति के द्वारा प्रगट होता है; (२) पहले कभी नहीं किया ऐसे ग्रन्थिभेद के द्वारा होता है; और (३) पश्चानुपूर्वी क्रमसे उत्पन्न होने वाले प्रशम-संवेग - निर्वेद-अनुकम्पा-आस्तिक्य, -इन पांचो की अभिव्यक्ति स्वरूप पांच लक्षण वाला होता है। उसे विज्ञप्ति कही जाती है। मात्र प्रस्तुत बोधि ही क्या, किन्तु अभय, चक्षु, आदि पांच यानी अभय से बोधि तक की पूर्वोक्त पांच वस्तु अपुनर्बन्धक आत्मा को ही उत्पन्न होती है। अपुनर्बन्धक जीव का स्वरूप पहले कह आये है। वह तीव्रभाव से पाप नहीं करता है, घोर संसार के प्रति बहुमान नहीं रखता है, और सर्व उचित करता है। उसी को अभयादि पांच प्राप्त होते हैं; कारण, अपुनर्बन्धक जीव से विलक्षण ऐसे पुनर्बन्धक जीव में पूर्ववर्णित अभयादि-पंचक अपने ऐसे स्वभाव वश प्रगट नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि एसा नियम है, व्यवस्था है, कि अभयादि पांच गुणों में पूर्व पूर्व के गुण से ही उत्तरोत्तर गुण, यानी अभयसे चक्षु, चक्षु से मार्ग, इत्यादि रूप से उत्पन्न हो सकता है। पूछिए, क्यों ऐसा ? उत्तर यह है कि अभयादि पांच यदि इस रीति से अर्थात् पहले से दूसरा गुण, दूसरे से तीसरा गुण, इत्यादि पद्धति से उत्पन्न न हुए हों, तो चाह्य वे दिखाव में अभय, चक्षु आदि स्वरूप हों, लेकिन उनमें वास्तविक अभयता, चक्षुता वगेरेह घट सकते नहीं। यहीं स्पष्ट कर के कहे तो, जो अभय गुण चक्षु को उत्पन्न नहीं १५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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