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(पं० - ) परमतेनाप्येतत्समर्थयन्नाह, 'उक्तं च ' = निरूपितं च, 'एतत्, ' = तदन्येभ्यस्तत्त्वज्ञानाभावलक्षणं वस्तु, 'अन्यैरपि' अस्मदपेक्षया भिन्नजातीयैरपि किं पुनरस्माभिः, कैरित्याह 'अध्यात्मचिन्तकैः ' आत्मतत्त्वगवेषकैः, कुत इत्याह' यद्' = यस्मात्कारणाद् 'आह' = उक्तवान्, 'अवधूताचार्यो' योगिमार्गप्रणायकः, उक्तमेव दर्शयति 'न' = नैवं, 'अप्रत्ययानुग्रहं' = सदाशिवकृतोपकारम्, 'अन्तरेण' = विना, 'तत्त्वशुश्रूषादयः ' उक्तरूपा: । कुत इत्याह 'उदकपयोमृतकल्पज्ञानाजनकत्वात्;' उदकं = जलं, पय: = क्षीरं, अमृतं = सुधा, तत्कल्पानि, विषयतृष्णापहारित्वेन श्रुतचिन्ताभावनारूपाणि ज्ञानानि तदजनकत्वात् । तत्त्वगोचरा एव हि शुश्रूषादयो मृदुमध्याधिकमात्रावस्था एवंरूपज्ञानजनका इति । स एव इतरानवजानन्नाह 'लोकसिद्धास्तु' = सामान्येन लोकप्रतिष्ठिता:, तुः = पुनः शुश्रूषादयः, सुप्तनृपाख्यानगोचरा इव' यथा सुप्तस्य = शय्यागतस्य नृपस्य = राज्ञो, निद्रालाभार्थम् ‘आख्यानविषया शुश्रूषादयोऽन्यार्था एव भवन्ति, न त्वाख्यानपरिज्ञानार्था: । 'इति' अवधूताचार्योक्तिसमाप्त्यर्थः । सर्वतात्पर्यमाह 'विषयतृडपहार्येव हिज्ञानम्' = विषाकारविषयाभिलाषनिवर्त्तकमेव, हि: = यस्मात्कारणात्, ज्ञानं तत्त्वबोधः कीदृशमित्याह 'विशिष्टकर्म्मक्षयोपशमजं' = विशिष्टात् मिथ्यात्वमोहविषयात् क्षयोपशमाज्जातम्। अनभिमतप्रतिषेधमाह'न' = नैव, 'अन्यद्' विषयतृष्णानपहारि, ज्ञानमिति गम्यते । कुत इत्याह— अभक्ष्यास्पर्शनीयन्यायेन' प्राग्व्याख्यातेन, 'अज्ञानत्वात्' = तत्त्वचिन्तायां ज्ञानाभावरूपत्वात् । यदि नामैवं ततः किमित्याह 'न च' = नैव, 'इदं' = ज्ञानं, 'यथोदितशरणाभावे' = प्रागुदितविविदिषाविरहलक्षणे । एवमपि किमित्याह 'तच्च' = शरणं, 'पूर्व्ववद्' = अभयादिधर्म्मवद्, 'भगवद्भ्य' इति ॥ १८ ॥
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की तृष्णा, आस्था, बहुमान आदि निवृत्त नहीं होता हैं। लेकिन जब मिथ्यात्त्व - मोहनीय कर्म का भी क्षयोपशम होता है, तब 'तत्त्वपरिणति' ज्ञान होता है, जो इन्द्रियों के विषयो की तृष्णा के ताप को शान्त करता है; विषयों पर अनास्था, अबहुमान जगाता है । यही तात्त्विक शुश्रूषादि से जन्म पाने वाला ज्ञान सच्चा तत्त्वज्ञान है; बाकी तो अज्ञान ही है।
प्र०
० - पूजाभिलाषादि से भी प्रवृत्त शुश्रूषादि के द्वारा ज्ञान तो होता है, फिर अज्ञान कैसे ?
उ०- ‘अभक्ष्य-अस्पर्शनीय' न्याय से वह अज्ञान कहा जाता है। पहले कह आये है कि भक्षण कर सके ऐसे भी गोमांसादि पदार्थ अभक्ष्य कहलाते हैं; और जिसे स्पर्श कर सके ऐसे भी चाण्डालादि अस्पर्शनीय माने जाते हैं; इस प्रकार तत्त्व की अपेक्षा से देखने पर वह ज्ञान अज्ञानरूप ही है; क्यों कि वहां ज्ञान-प्रकाश का , जो वितृष्णा स्वरूप अन्धकार का नाश होना चाहिए, वह नहीं हुआ ।
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अतः कहते हैं कि विषयतृष्णा का निवारक हो वही तत्त्वज्ञान है; और यह जिन शुश्रूषादि से उत्पन्न होता है, वे पूर्वोक्त विविदिषा यानी तत्त्वजिज्ञासा के बिना नहीं हो सकते हैं। यह तत्त्वजिज्ञासा 'शरण' है; और अभयादि के समान यह शरण भी अरहंत परमात्मा के पास से ही सिद्ध हो सकता है। इसलिए स्तुति की गई सरणदयाणं ॥ १८ ॥
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