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________________ (ल०-गुणाभासकारणानि ) संभवन्ति तु वस्त्वन्तरोपायतया तद्विविदिषामन्तरेण, न पुनः स्वार्थसाधकत्वेन भावसाराः, अन्येषां प्रबोधविप्रकर्षेण प्रबलमोहनिद्रोपेतत्वात् । उक्तं चैतदन्यैरप्यध्यात्मचिन्तकैः; यदाहावधूताचार्यः "नाप्रत्ययानुग्रहमन्तरेण तत्त्वशुश्रूषादयः, उदकपयोमृतकल्पज्ञानाजनकत्वात् । लोकसिद्धास्तु सुप्तनृपाख्यानकगोचरा इवान्यार्थ एवे ' ति । विषयतृडपहार्येव हि ज्ञानं विशिष्टकर्मक्षयोपशमजं, नान्यद्, अभक्ष्यास्पर्शनीयन्यायेनाज्ञानत्वात् । न चैदं यथोदितशरणाभावे । तच्च पूर्ववद् भगवद्भ्य इति शरणं ददतीतिशरणदाः ॥ १८ ॥ (पं० - ) तर्हि न संभविष्यन्त्येव तत्त्वगोचरतामन्तरेण शुश्रूषादय इत्याशङ्क्याह 'संभवन्ति तु' = न न संभवन्ति, 'तुः' पूर्वेभ्य एषां विशेषणार्थः । तदेव दर्शयति 'वस्त्वन्तरोपायतया' वस्त्वन्तरं = तत्त्वविविदिषापेक्षया पूजाभिलाषादि, तद् उपायः = कारणं येषां ते तथा, तद्भावस्तत्ता, तया । अत एवाह 'तद्विविदिषामन्तरेण' = तत्त्वजिज्ञासां विना, व्यवच्छेद्यमाह 'न पुनः' = न तु 'स्वार्थसाधकत्वेन'' भावसारा: ' = परमार्थरूपाः । ननु कथं न स्वार्थसाधका एते ? इत्याह 'अन्येषां' = वस्त्वन्तरोपायतया प्रवृत्तानां 'प्रबोधविप्रकर्षेण' तत्त्वपरिज्ञानदूरभावेन हेतुना, 'प्रबलमोहनिद्रोपेतत्वाद्' = बलिष्टमिथ्यात्वमोहस्वापावष्टब्धत्वात् । = क्या, लेकिन हमसे भिन्न जाति वाले आत्मतत्त्व के गवेषक अध्यात्मचिन्तकों ने भी कही है; जैसे कि योगिमार्ग के प्रणेता अवधूताचार्यने कहा है कि, 'नाप्रत्ययानुग्रहमन्तरेण तत्त्वशुश्रूषादयः' अर्थात् सदाशिव द्वारा उपकार कराये बिना उक्त असली तत्त्वशुश्रूषादि प्रज्ञागुण उत्पन्न नहीं हो सकते । नहीं होने का कारण वह आचार्य यह बतलाते हैं कि नकली तत्त्वशुश्रूषादि के गुण, ये पानीरूप श्रुतज्ञान, दुध रूप चिन्ताज्ञान, एवं अमृत रूप भावनाज्ञान पैदा कर सकते नहीं है। तत्त्वजिज्ञासा से उत्पन्न ही शुश्रूषादि श्रुत - चिन्ता - भावना रूप ज्ञान को उत्पन्न कर सकते हैं। ये शुश्रूषादि मृदु मात्रा में होने पर श्रुतज्ञान का, मध्य मात्रा में होने पर चिन्ताज्ञान का, और अधिक मात्रा में होने पर भावना ज्ञान का जनक होते हैं । तत्त्वज्ञान की तीन कक्षाएँ होती है; पहले शास्त्रश्रवण होने पर पद और अर्थ का ज्ञान मात्र जो होता है वह है श्रुतज्ञान; यह मृदु कक्षा के शुश्रूषादि से लभ्य है । बाद में मध्यम कक्षा के शुश्रूषा आदि की वजह से उन्ही शास्त्रार्थ पर तर्कपूर्ण चिन्तनात्मक ज्ञान होता है; वह चिन्ताज्ञान कहा जाता है। उसके अनंतर उत्कृष्ट मात्रा के शुश्रूषादि से उन्हीं चिन्तित शास्त्रार्थ के आत्मपरिणति याने स्वसंवेदन रूप भावनाज्ञान होता है। अतात्त्विक शुश्रूषादि पर सुप्तनृपाख्यान दृष्टान्त : : वे ही अवधूत आचार्य इन असली तत्त्वशुश्रूषादि से अतिरिक्त अतात्त्विक शुश्रूषादि की अवगणना करते हुए कहते हैं कि लोक में सामान्य रूप से चलते हुए वैसे कृत्रिम शुश्रूषादि तो शय्या में पड़े हुए राजा को नींद लाने कही जाती किसी कथा के सम्बन्ध में भी होते हैं। किन्तु वे शुश्रूषादि कथा के तत्त्व का ज्ञान करने के लिए उत्थित नहीं होते हैं। तब ऐसे तत्त्वशुश्रूषादि से क्या ? - अवधूताचार्य का यह कथन है। विषयतृष्णा को दूर करे वही सच्चा ज्ञान : इस सभी का तात्पर्य यह है कि तत्त्वबोध यानी सच्चा तत्त्वज्ञान वही है जो विष के समान विषयतृष्णा को दूर करें। इसीलिए विशिष्ट कर्म यानी मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से जो विषयतृष्णा का निवारक तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है, वही सच्चा तत्त्वज्ञान है; नहीं कि विषयतृष्णा को न हटाए ऐसा अन्य ज्ञान । केवल ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम होने से 'तत्त्वप्रतिभास' ज्ञान याने आभासरूप ज्ञान होता है। इसमें इन्द्रिय के विषयों १४९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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