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________________ (ल०-योगदर्शने अभयादिसमा: प्रवृत्त्यादयः) सिद्धं चैतत्प्रवृत्त्यादिशब्दवाच्यतया योगाचार्याणां, 'प्रवृत्ति-पराक्रम-जया ऽऽनन्द-ऋतम्भरभेदः कर्मयोग' इत्यादिविचित्रवचनश्रवणादिति । न चेदं यथोदितमार्गाभावे; स चोक्तवद् भगवदभ्यः, इति मार्ग ददतीति मार्गदाः । १७ ॥ (प्र०-) परतन्त्रेणापीदं साधयन्नाह 'सिद्धं च' प्रतीतं च, 'एतत्' = सानुबन्धक्षयोपशमवतो ग्रन्थिभेदादिलक्षणं वस्तु । 'प्रवृत्तिपराक्रमजयानन्दऋतम्भरभेदः कर्मयोगः', प्रवृत्तिः' = चरमयथाप्रवृत्तकरणशुद्धिलक्षणा, प्रकृतो मार्ग इत्यर्थः, पराक्रमेण = वीर्यविशेषवृद्ध्या अपूर्वकरणेनेत्यर्थः, 'जयो' = विबन्धकाभिभवो, विघ्नजयोऽनिवृत्तिकरणमित्यर्थः, 'आनन्दः' = सम्यग्दर्शनलाभरूपः, 'तमोग्रन्थिभेदादानन्दः' इतिवक्ष्यमाणवचनात्, 'ऋतम्भराः' = सम्यग्दर्शनपूर्वको देवतापूजनादिर्व्यापारः, ऋतस्य = सत्यस्य भरणात्; ततश्च ते प्रवृत्त्यादयो भेदा यस्य स तथा, कर्मयोगः क्रियालक्षणः, कर्मग्रहणं इच्छालक्षणस्य प्रणिधानयोगस्य व्यवच्छेदार्थम् । सामान्येन ह्यन्यत्र योगः पञ्चधा; यदुक्तं 'प्रणिधि-प्रवृत्ति- विजय-सिद्धिविनियोगभेदतः प्रायः । धर्मज्ञैराख्यातः शुभाशयः पञ्चधात्र विधौ ॥१॥' (षोडशके ३-६) शुभाशयश्च योगः, 'इत्यादि' इति, आदिशब्दादीच्छायोगादिवचनग्रहः । (२) पराक्रमः- प्रवृत्ति के बाद प्रराक्रम से कार्य करनेका है, अर्थात् शुभ वीर्योल्लास द्वारा अपूर्वकरण से आगे बढ़ना है। 'अपूर्वकरण' में अपूर्व याने पहले कभी नहीं किये ऐसे पांच कार्य होते है :- १. कर्मो की काल स्थिति का अपूर्व नाश, यह अपूर्व स्थितिघात है; २. कर्मो का अपूर्व रस-घात; ३. नये शुभ कर्मो का भेपूर्वस्थितिबन्ध; ४. गुणश्रेणि यानी नाश करने योग्य मिथ्यात्व मोहनीय कर्मो के दलिकों की असंख्यातगुण वृद्धि से वर्तमान उदयप्राप्त दलिकों में प्रक्षेप; ५. गुणसंक्रम अर्थात् वर्तमान में उपार्जित होते शुभ कर्मो के भीतर पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मो का असंख्यातगुण वृद्धि से संक्रमण । (३) जयः - प्रतिबन्धक विघ्नों के पराभव को जय कहते हैं। वह अनिवृत्तिकरण स्वरूप है। यह करण प्राप्त करने के बाद अब सम्यग्दर्शन का आविर्भाव किए बिना निवृत्ति नहीं अर्थात् अनिवृत्ति होती है। इस कारण के पिछले भाग में एक कार्य अंतरकरण' बनाने का होता है। वहां, आगे प्राप्त किये जाने वाले सम्यग्दर्शन के काल में सहज उदययोग्य जो मिथ्यात्वमोहनीय कर्म थे, उनको यहां पहले उदय में खींच लेता है, ता कि सम्यग्दर्शन का काल मिथ्यात्व के उदय से रहित हो जाने से, अब इसके आगे होने वाले दर्शनमोहनीय कर्मो के उदय तक अन्तर पड़ गया। वह 'अन्तरकरण' कहलाता है। वहां सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। (४) आनन्द :- सम्यग्दर्शन के लाभ स्वरूप आनन्द होता है; क्यों कि आगे कहनेवाले हैं कि 'तमोग्रन्थिभेदादानन्दः' अज्ञान-मिथ्याज्ञान की ग्रन्थि का भेद होने से आनन्द प्रगट होता है। (५) ऋतम्भरा :- ऋत का अर्थ है सत्य; इसका पोषण करे वह ऋतंभरा है; यह सम्यग्दर्शन पूर्वक देवाधिदेव की पूजा आदि प्रवृत्ति स्वरूप होती है। इन प्रवृत्ति, पराक्रम आदि पांच प्रकार वाला कर्मयोग होता है। वह क्रिया स्वरूप है। यहां क्रिया रूर कर्मयोग का ग्रहण इसलिए किया कि प्रवृत्ति आदि को इच्छा स्वरूप प्रणिधान-योग न समझा जाए । दूसरे स्थल में सामान्य रूप से योग पांच प्रकार का गृहीत किया है; 'षोडशक तीसरे में ६वा श्लोक है : प्रणिधि-प्रवृत्ति-विघ्नजय-सिद्धिविनियोगभेदतः प्रायः । धर्मज्ञैराख्यातः शुभाशयः पञ्चधात्र विधौ ॥१॥ १४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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