SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-) न चासौ तथातिसंक्लिष्टस्तत्प्राप्ताविति प्रवचनपरमगुह्यम् । न खलु भिन्नग्रन्थे यस्तबन्ध इति तन्त्रयुक्त्युपपत्तेः । एवमन्यनिवृत्तिगमनेन (पंजिका पाठः ‘अनिवृत्तिगमनेन') अस्य भेदः। (पं०-) ननु सम्यग्दर्शनावाप्तावपि कस्यचिन्मिथ्यात्वगमनाद् कथमत्र क्लिष्टदुःखाभाव इत्याह 'न च' = नैव, 'असौ' = प्रकृतजीवः, 'तथा' = प्रागिव, 'अतिसंक्लिष्टः' = अतीवसानुबन्धक्लेशवान्, 'तत्प्राप्तौ' मार्गप्राप्तौ, 'इति' = एतत् 'प्रवचनपरमगुह्यं' = शासनहृदयम् । अत्र हेतुः 'न खलु' = नैव, 'भिन्नग्रन्थेः' = सम्यक्त्ववतो, 'भूयः' = पुनः 'तद्बन्धो' = ग्रन्थिबन्धः, 'इति' = एवं, 'तन्त्रयुक्त्युपपत्तेः' = पुनस्तद्बन्धेन न व्यवलीयते कदाचिदित्यादिशास्त्रीययुक्तियोगात् । ततः किं सिद्धमित्याह 'एवं' = सानुबन्धतया, 'अनिवृत्तिगमनेन' = अनिवृत्तिकरणप्राप्त्या, 'अस्य' = मार्गरूपक्षयोपशमस्य, 'भेदो' = विशेषः, शेषक्षयोपशमेभ्यः । कि एक बार भी जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, उसे अब कभी भी ग्रन्थिबन्ध होता नहीं है। 'ग्रन्थिबन्ध' कहते हैं ऐसे मिथ्यात्व कर्म के उपार्जन को, जिस का उपशम करने के लिए पुनः अपूर्वकरणादि का भारी प्रयत्न करना पड़े। शास्त्रीय युक्ति यही कहती है कि एक बार सम्यग्दर्शन का जिसने स्वाद पाया, वह बाद में कभी वहां से कदाचित् गिर भी जाए, तब भी वह मिथ्यात्व आदि कर्मों की उत्कृष्ट काल-स्थिति का उपार्जन नहीं करता। अतः मानना आवश्यक है कि प्रथम सम्यक्त्व तक पहुंचने में सानुबन्ध क्षयोपशम कार्य करता था। साथ में ऐसे अनिवृत्तिकरण यानी शुभ परिणति का प्रयत्नविशेष था, कि जहां से, अब बिना सम्यग्दर्शन प्राप्त किये, आत्मा च्युत न हो। इसी से कर्मों का ऐसा सानुबन्ध क्षयोपशम अन्य निरनुबन्ध क्षयोपशमों से भिन्न पड़ता है। योगदर्शन में अभयादि के समान प्रवृत्ति आदि ५: जैनेतर शास्त्र से इस वस्तु की सिद्धि करते हुए कहते है कि सानुबन्ध क्षयोपशम वाले को जो ग्रन्थिभेदादि स्वरूप वस्तु पैदा होती है यह पतञ्जलि वगैरह योगाचार्यो के मत में प्रवृत्ति आदि दूसरे शब्द से यानी नामान्तर से कही हुई प्रसिद्ध है । वहां कहा गया है कि 'प्रवृत्ति-पराक्रम-जया-ऽऽनन्द-ऋतम्भरभेदः कर्मयोगः' अर्थात् प्रवृत्ति, प्रराक्रम, जय, आनन्द, और ऋतम्भर, -इन पांच प्रकार के कर्मयोग होते है। (१) प्रवृत्ति : इन में जो प्रवृत्ति कही गई वह जैन मत से चरम यथाप्रवृत्त करण की आत्मशुद्धि स्वरूप होती है। पहले कह आये हैं कि 'नदी-गोलपाषाण' न्याय से नदी में टकरा-टकरा कर गोल बनने वाले पाषाण की तरह जीव के कर्मों की स्थिति किसी विशिष्ट प्रयल बिना यथाप्रवृत्त यानी यों ही लघु हो जाती है। यह यथाप्रवृत्त-करण से हुआ; 'करण' का अर्थ बढता हुआ शुभ अध्यवसाय यानी आत्म-परिणाम है। यहां अब आत्मा के शुभ अध्यवसाय बढाने का विशिष्ट प्रयत्न कर अपूर्वकरण किया जाये तो निबिड़ रागद्वेष की ग्रन्थि का भेद हो सम्यग्दर्शन के प्रति प्रगति हो सके। लेकिन ऐसे कई यथाप्रवृत्त करण होते हैं कि जहां से आत्मा आगे बढ़ने की जगह वापिस लौटती है और कर्मो की स्थिति बढा देती है। हां, अगर अपूर्व शुभ वीर्योल्लास से अपूर्वकरण प्राप्त होने वाला है, तो वहां यथाप्रवृत्त करण शुद्ध कहलाएगा। इंसे योगदर्शन मत के अनुसार 'प्रवृत्ति' में अन्तर्भूत कर सकते हैं। यहां प्रवृत्ति, 'मग्गदयाणं' पद के विवेचन में 'मार्ग' का जो स्वरूप बतलाया, वही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy