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________________ कि मनुष्य की अपेक्षा से मनुष्य, पशु की अपेक्षा से पशु, वह इहलोक है। इसकी तरफ से भय, वह हुआ इहलोक भय; उदाहरणार्थ, 'मुझे कोई मानव पीटेगा तो नहीं, ऐसा मनुष्य से मनुष्य को भय । (२) परलोकभय' का अर्थ, परलोक से भय, 'पर' यानी विजातीय जो पशु-देवादि इन की ओर से मनुष्यादि को भय, यह परलोकभय है; दृष्टान्त के लिए मनुष्य को 'हमें कोई पशु आदि मारेगा तो नहीं, इस प्रकारका भय । (३) आदानभय' का अर्थ है आदान के संबंध में भय; अर्थात् वस्तु उठा लेने के संबन्ध में चोर आदि से भय; जैसे कि, 'कोई चोर वगैरह हमारा धन आदि ले तो नही लेगा!' (४) अकस्माद् भय' का अर्थ है, अकस्माद् की याने अन्य किसी बाह्य निमित्त के विना ही घर आदि में बैठे बैठे यों ही लगने वाला भय । (५) आजीवभय वह है जो जीविका के साधन आदि अन्य के अवरोध वश हो, तो जो भय होता हो; जैसे कि, 'मेरी जीविका के साधन अमुक के द्वारा लुप्त तो नहीं किये जायेंगे !' (६) मृत्यु का भय तो प्रसिद्ध है। (७) अश्लाघा-भय' यह अपकीर्ति-अपयश का भय है, उदाहरणार्थ 'ऐसा ऐसा करने में महान अपयश होता है,' इस भय से आदमी उस में प्रवृत्त होता नहीं है। अभयदाता = विशिष्ट स्वास्थ्यदाता :___ भगवान, जीव के इन सभी प्रकार के भय दूर करने द्वारा, अभय के दाता होते हैं । अर्थात् भगवत्-प्रभाव से जीव इन भयों से मुक्त होता है। रुपान्तर से कहें तो वे जीव को अभय यानी विशिष्ट प्रकार का आत्म-स्वास्थ्य देते हैं। यहां 'विशिष्ट' शब्द का अर्थ आगे कहे जाने वाले गुणों में कारणभूत हो एसे निश्चित प्रकारका आत्मस्वास्थ्य यानी आत्मा की स्वरूप अवस्था है। तात्पर्य, अर्हत्प्रभु के प्रभाव से आत्मा में इस प्रकार की स्वस्थता खडी होती है कि जिस से अब कहे जानेवाले चक्षु, मार्ग आदि गुणों के बाधक भय दूर हो जाते हैं; एवं मोक्ष के अनुकूल सम्यग्दर्शनादि धर्मों की भूमिका तैयार करने में आवश्यक जो धृति, यह प्राप्त होती है । यह भूमिका बीजभूत मार्ग-बहुमानादि रूप होती है, यानी सम्यग्दर्शनादि मार्ग के बहुमान आदि गुण स्वरूप होती है; और उसके लिए धृति स्वरूप आत्म-स्वास्थ्य अपेक्षित है। यह अभय का रहस्य है। अभय से यानी स्वास्थ्य से मार्गबहुमानादि, इन से सम्यगदर्शनादि मार्ग, और इन से मोक्ष होता है। सम्यग्दर्शनादि धर्म स्वास्थ्य (धृति) पर निर्भर है :प्र०- क्या बिना स्वास्थ्य सम्यग्दर्शनादि धर्म सिद्ध नहीं हो सकते? उ०- नहीं, स्वास्थ्य न होने पर सम्यग्दर्शनादि धर्म निष्पन्न नहीं हो सकते हैं। कारण, उपर्युक्त स्वरूप वाले भय यानी उपद्रव यदि चित्त में विद्यमान रहते हैं, तो वे चित्त को अत्यन्त पीड़ा देते है। अत्यन्त पीड़न इसी लिए कहा, कि भय-उपद्रव ये अन्तरङ्ग भाव यानी मानसिक वृत्ति रूप होने की वजह मन के लिए अत्यन्त क्लेशकारी होते हैं । (बाहिरी उपद्रवों के सान्निध्य में तो यदि चित्त इतना अस्वस्थ न हो तब वे इतने क्लेशकारी नहीं होते हैं) चित्त को क्लेश हो तो क्या ? ऐसा मत कहना; क्योंकि प्रस्तुत मोक्षोपयोगी सम्यगदर्शनादि धर्म जो किं चित्त में उत्पन्न होने वाले हैं, वे चित्तसमाधान यानी चित्तस्वास्थ्य की अपेक्षा रखते हैं; कारण कि उन धर्मों का ऐसा स्वभाव ही है कि वे चित्त के स्वास्थ्य से उत्पन्न हों। प्र०-ठीक है, फिर भी इस में अभय की क्या अपेक्षा है ? भय होने पर भी क्या स्वास्थ्य का अस्तित्व संभवित नहीं है? १३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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