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(ल०-भगवतामभयदत्वे हेतुचतुष्कम् ) - अतोऽस्य गुणप्रकर्षरूपत्वादचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् तथाभावेनावस्थिते: सर्वथापरार्थकरणाद्, भगवद्भ्य एव सिद्धिरिति । तदित्थंभूतमभयं ददतीत्यभयदाः । १५ ।
(पं०-) 'अतो' निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूतधृतिरूपत्वाद्, 'अस्य' = अभयस्य, 'भगवद्भ्य एव सिद्धि'रित्युत्तरेण सम्बन्धः । गुणप्रकर्षरुपत्वादि'त्यादि; अत्र चत्वारः परम्पराफलभूता हेतवो गुणप्रकर्षरूपत्वअचिन्त्यशक्ति युक्तत्व - तथाभावावस्थितत्व - सर्वथापरार्थकरणलक्षणाः; तथाहि - भगवतां गुणप्रकर्षपूर्वकमचिन्त्यशक्तियुक्तत्वं, गुणप्रकर्षाभावेऽचिन्त्यशक्तियुक्तत्वाभावात् । अचिन्तयशक्तियुक्तत्वे च तथाभावेन' = अभयभावेन अवस्थितिः, अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वमन्तरेण तथाभावेनावस्थातुमशक्यत्वात् । तथाभावेनावस्थितौ च 'सर्वथा' = सर्वप्रकारैर्बीजाधानादिभिः 'परार्थकरणं' = परहितविधानं, स्वयं तथारूपगुणशून्येन परेषु गुणाधानस्याशक्यत्वात् । भगवद्भ्य एव' न स्वतो, नाप्यन्येभ्यः । 'इति' एवकारार्थः ।
उ०-नहीं, स्वास्थ्य यह भयपरिणाम से विरुद्ध है यानी प्रतिषेधित होता है; क्योंकि अन्तःकरण में रहा भय का परिणाम उसे अस्वस्थ कर देता है; और अस्वस्थता यह धर्म में साधनभूत स्वास्थ्य के विरुद्ध है; तब यदि भय का भाव हो यानी अभय न हो तो स्वास्थ्य होगा ही कैसे ? तात्पर्य, सम्यग्दर्शनादि धर्मो में आवश्यक ऐसे चित्तस्वास्थ्य के लिए अभय यानी भयपरिणाम का अभाव जरुरी है।
अभयदाता भगवान की चार विशेषताएँ :
जब मोक्षोपयोगी सम्यगदर्शनादि धर्म की भूमिका की रचना करने में धृति यानी स्वास्थ्य अपेक्षित है और अभय स्वास्थ्य स्वरूप ही है, तब वह अर्हत् परमात्मा से ही प्राप्त हो सकता है। प्रश्न होगा यह कैसे? उत्तर यह है कि वे भगवान गुणप्रकर्ष-अचिन्त्यशक्ति-अभयवत्ता-परार्थकरण, इन चार विशेषताओं से संपन्न होने के कारण अभयदाता हो सकते हैं। ये चार कारण इस प्रकार परंपरा से यानी उत्तरोत्तर पूर्व पूर्व के फल रूप से उत्पन्न होते हैं, :
अर्हत् प्रभु गुणप्रकर्ष अर्थात् उत्कृष्ट गुणों के स्वामी होने से उनकी वजह प्रभु में अचिन्त्य शक्तियुक्तता आती है; क्यों कि उत्कृष्ट गुणों के अभाव में अचिन्त्य शक्तिमत्ता नहीं हो सकती है। अब, अचिन्त्य शक्तिमत्ता के कारण प्रभु की अभयभाव से अवस्थिति होती है; कारण, बिना ऐसी शक्ति, अभय रूप से रहना अशक्य है। एवं अभयभाव से स्थिति होने के कारण प्रभु के द्वारा दूसरों में बीजाधानादि सर्व प्रकारों से परहित का विधान होता है; क्यों कि स्वयं बिलकुल अभयभाव से रहने के गुण बिना, परहित यानी दूसरों में गुणसंपादन करना अशक्य है। स्वयं अभययुक्त नहीं तो औरों को अभय कैसे दे सकें?
इसीलिए सिद्ध होता है कि अभय अर्हद् भगवान के द्वारा ही सिद्ध होता है, नहीं कि अपने से, या अन्यों से।
सारांश, अर्हत् परमात्मा में ज्ञानावरणीयादिकर्म-जन्य दोष नष्ट हो जाने से गुणों के उत्कर्ष की बहार महक उठती है। उत्कृष्ट गुणों के कारण अचिन्त्य प्रभाव चमक उठता है। इससे वे स्वयं परम स्वास्थ्य पाने पूर्वक परोपकार करते हैं। अतएव भव्य जीवों को सम्यग्दर्शनादि धर्मो के कारणभूत अभय यानी चित्त-स्वास्थ्य इन्हीं से प्राप्त हो सकता है; इसलिए उनकी स्तुति की गई 'अभयदयाणं' ।
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