SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-) प्रद्योत्यविचार:-) प्रद्योत्यं तु सप्तप्रकारं जीवादितत्त्वम् । सामर्थ्यगम्यमेतत्, तथाशाब्दन्यायात् । अन्यथा अचेतनेषु प्रद्योतनायोगः, प्रद्योतनं प्रद्योत इति भावसाधनस्यासम्भवात् । (पं०-) एवं प्रद्योतकरसिद्धौ प्रद्योतनीयनिर्दारणायाह 'प्रद्योत्यंतु' = प्रद्योतविषयः पुनः, 'सप्तप्रकारं' = सप्तभेदं, 'जीवादितत्त्वं' = जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणं वस्तु, 'सामर्थ्यगम्यमेतत्' सूत्रानुपात्तमपि, कुत इत्याह तथाशाब्दन्यायात्' क्रियाकर्तृसिद्धौ। सकर्मसु धातुषु नियमतस्तत्प्रकारकर्मभावात् । आह जीवादितत्त्वं प्रद्योतधर्मकमपि कस्मान्न भवति येन सम्पूर्णस्यैव लोकस्य भगवतां प्रद्योतकरत्वसिद्धिः स्याद् ?' इत्याशक्य व्यतिरेकमाह अन्यथा' = प्रद्योत्यत्वं विमुच्य, 'अचेतनेषु' = धर्मास्तिकायादिषु 'प्रद्योतनायोगः' । कथमित्याह 'प्रद्योतनं प्रद्योत इति भावसाधनस्यासम्भवात्' । आप्तवचनसाध्यः श्रुतावरणक्षयोपशमो भावः, साधनं तु प्रद्योतः (प्र०... भावसाधनः; प्र०... भावप्रद्योतः) कथमिवासावचेतनेषु स्यात् ? (ल०-अचेतनविषयं कीदृक् प्रद्योतनम् ? ) अतो ज्ञानयोग्यतैवेह प्रद्योतनमन्यापेक्षयेति । तदेवं स्तवेष्वपि एवमेव वाचकप्रवृत्तिरिति स्थितम् । एतेन 'स्तवेऽपुष्कलशब्दः प्रत्यवायाय' इति प्रत्युक्तं, तत्त्वेनेदृशस्यापुष्कलत्वायोगात् । इति लोकप्रद्योतकराः १४ । ___ (पं०-) अत एवाह अतो' = भावसाधनप्रद्योतासम्भवादचेतनेषु धर्मास्तिकायादिषु, 'ज्ञानयोग्यतैव' = श्रुतज्ञानलक्षणज्ञातृव्यापाररूपं ज्ञानं प्रति विषयभावपरिणतिरेव, 'इह' = अचेतनेषु, 'प्रद्योतनं' = प्रकाशः, 'अन्यापेक्षया' = तत्सवरूपप्रकाशकमाप्तवचनमपेक्ष्येति । यथा किल प्रदीपप्रभादिकं प्रकाशकमपेक्ष्य चक्षुष्मतो द्रष्टुर्घटादेर्दृश्यस्य दर्शनविषयभावपरिणतिरेव प्रकाशः, तथेहापि योज्यमिति, न तु श्रुतावरणक्षयोपशमलक्षण इति । 'एतेने 'ति, एतेन = लोकोत्तमादिपदपञ्चकेन, 'अपुष्कलशब्द' इति = संपूर्णलोकरूढस्वार्थानभिधायकः, 'तत्त्वेने 'त्यादि, तत्त्वेन = वास्तवीं स्तवनीय (प्र०...स्तवन) वृत्तिमाश्रित्य, ईदृशस्य = विभागेन प्रवृत्तस्य लोकशब्दस्य, संपूर्णस्वार्थानभिधानेऽपि, 'अपुष्कलत्वायोगात्' न्यूनत्वाघटनात् । लोकरूढस्वार्थापेक्षया तु युज्येताप्यपुष्कलत्वमिति तत्त्वग्रहणम् । उ०-नहीं, क्यों कि ऐसा भाव में प्रयोग ही समुचित नहीं है। कारण यह है कि यहां प्रद्योत रूप भाव तो आप्तवचन द्वारा साध्य श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है, उसी का साधन करना यह प्रद्योतन है। अब देखिये कि अचेतन तत्त्वों में ऐसा कोई ज्ञानावरण ही नहीं होता है, तो उसका क्षयोपशम भी कैसे हो सकेगा? यदि वह नही, तो अचेतन तत्त्वों में प्रद्योतन की अकर्मक भी क्रिया नहीं हो सकती है। अचेतन पदार्थो का प्रद्योतन कैसे ? - प्र०- जब अचेतन धर्मास्तिकायादि में अकर्मक प्रद्योतन क्रिया संभवित नहीं है तब उनको विषय करनेवाला प्रद्योतन क्या है ? उ० - अचेतन तत्त्वों का प्रद्योतन ज्ञानयोग्यता रूप है। ज्ञानयोग्यता का मतलब है ज्ञाता की श्रुतज्ञान स्वरूप क्रिया के प्रति विषयरूपेण परिणति होना । आत्मा में ज्ञान रूप क्रिया होती है, उस ज्ञान के विषय धर्मास्तिकायादि तत्त्व होते हैं; लेकिन अमुक अमुक ज्ञान के अमुक अमुक ही तत्त्व विषय होते हैं। इससे यह सूचित होता है कि ज्ञान के प्रति उस तत्त्वको विषयरूप में परिणत होना पड़ता है, यानी उस तत्त्व में विषयभाव की परिणति होती है। ज्ञान के प्रति इसी विषयभाव की परिणति यह ज्ञानयोग्यता है और वही है प्रद्योतन । अचेतन १२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy