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(ल०-) इतरेतरापेक्षा हि वस्तुस्वभावः, तदायत्ता च फलसिद्धिः । इति उत्कृष्टचतुर्दशपूर्वविल्लोकमेवाधिकृत्य प्रद्योतकरा इति लोकप्रद्योतकराः ।
(पं०-) भावनिका स्वयमप्याह 'इतरेतरापेक्षः, 'हिः' यस्मादर्थे 'इतरः = कारणवस्तुस्वभावः 'इतरं' = कार्यवस्तुस्वभावं, कार्यवस्तुस्वभावश्च कारणवस्तुस्वभावम्, 'अपेक्षते' = आश्रयते, इतरेतरापेक्षः 'वस्तुस्वभावः = कार्यकारणरूपपदार्थस्वतत्त्वम्। ततः किम्? इत्याह 'तदायत्ता च' कार्यापेक्षकारणस्वभावायत्ता च, ‘फलसिद्धि': कार्यनिष्पत्तिः । यादृक् प्रकाशरूपः कारणस्वभावस्तादृक् दर्शनरूपं कार्यमुत्पद्यते, इति भावः । 'इति' अस्मात्प्रकाशभेदेन दर्शनभेदाद्धेतोः 'उत्कृष्टचतुर्दशपूर्वविल्लोकमेव' नान्यान् षट्स्थानहीनश्रुतलब्धीन् 'अधिकृत्य' आश्रित्य 'प्रद्योतकरा इति' । एवं चेदमापनं यदुत भगवत्प्रज्ञापनाप्रद्योतप्रतिपन्ननिखिलाभिलाप्यभावकलापा गणधरा एवोत्कृष्टचतुर्दशपूर्वविदो भवन्ति गणधराणामेव भगवतः प्रज्ञापनाया एव उत्कृष्टप्रकाशलक्षणप्रद्योतसम्पादनसामर्थ्यात् । एवं तहि गणधरव्यतिरेकेणान्येषां भगवद्वचनादप्रकाशः प्राप्नोतीति चेत् ? न, भगवद्वचनसाध्यप्रद्योतैकदेशस्यैतेषु भावाद्, दिग्दर्शकप्रकाशस्येव पृथक् पूर्वादिदिक्ष्वति ।
प्र०- तब तो क्या यह फलित होता है कि गणधर देवों के अलावा और किन्हीं को भगवान के उपदेश से प्रकाश नहीं होता है?
उ०- नहीं, बिलकुल प्रकाश नहीं होता है ऐसा नहीं है; भगवान के उपदेश के साध्य प्रकाश का अमुक अंश तो उन अन्य जीवों में भी प्रादुर्भूत होता है; दृष्टान्त के लिए देखिये कि पूर्वादि दिशाओं में होनेवाले सूर्य के मुख्य प्रकाश के अतिरिक्त दिग्दर्शक प्रकाश भी व्यवहित भागो में होता है न?
प्रकाशयोग्य वस्तु कौन ?
भगवान किन के प्रति प्रकाशकर हैं वह सिद्ध किया गया। अब प्रकाश का विषय क्या है यह निर्णीत किया जाता है। प्रकाश का विषय जीवादि तत्त्व है; और वे १ जीव, २ अजीव, ३ आश्रव, ४ बन्ध, ५ संवर, ६ निर्जरा, एवं ७ मोक्ष, - इन सात प्रकार के हैं। 'लोगपज्जोअगराणं' इस सूत्रमें यद्यपि शब्दतः यह प्रकाश्य विषय गृहीत नहीं किया है, फिर भी वह अर्थापत्ति से गम्य है। कारण, शाब्दन्याय ऐसा है कि जब क्रिया का कर्ता सिद्ध हुआ, तब वह क्रिया यदि सकर्मक क्रियावाची पद से गम्य हो तो उसका विशेषणीभूत कोई न कोई कर्म भी अवश्य सिद्ध होता है । इस लिए प्रकाश-क्रिया का कर्म जीवादितत्त्व सिद्ध है। अर्थात् भगवान द्वारा गणधरों में जीवादि तत्त्वों का प्रद्योत होता है।
प्रकाश धर्म सर्वतत्त्वों में क्यों नहीं ? मात्र जीव में ही क्यों ? -
प्र०- जीवादि सर्व तत्त्वों में ही प्रद्योत यानी प्रकाश धर्म होना मान ले तो क्या हानि है ? इससे तो भगवान भी सर्वतत्त्व यानी समस्त लोक के प्रति प्रकाशकर ठीक ही सिद्ध होंगे।
उ०-ऐसा मान तो लिया जाए, किन्तु तब तो प्रश्न उठेगा कि उन तत्त्वों के अन्तर्गत अचेतन तत्वों में होने वाले प्रकाश से प्रकाश्य क्या होगा? क्यों कि प्रकाश्य विषय कोई न हो, और सिर्फ प्रकाश मात्र हो सके ऐसा असंभवित है। धर्मास्तिकाय आदि अचेतन वस्तु में प्रकाश जैसी चीज होना यह, किसी दूसरे प्रकाश्य विषय के सिवा, असङ्गत है।
प्र०-'किसी वस्तु का प्रकाश करना यह प्रद्योत' - ऐसा कर्मयुक्त प्रयोग नहीं, 'प्रकाश रूप होना यही प्रद्योत है' -ऐसे भाव में प्रयोग ले कर अचेतन तत्त्वों में क्या प्रकाशधर्म सङ्गत नहीं हो सकेगा?
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